________________
३२
महावीर वर्धमान जाने से कोई उच्च नहीं हो सकता; जल में स्नानकर के यज्ञ आदि में प्राणियों की हिंसा करने से अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती। असली यज्ञ है इन्द्रिय-निग्रह, तप उस यज्ञ की अग्नि है, जीव अग्नि-स्थान है, मन, वचन और काय-योग उस की कड़छी है, शरीर अग्नि को प्रदीप्त करनेवाला साधन है, कर्म ईंधन है तथा संयम शांति-मंत्र है। जितेन्द्रिय पुरुष धर्मरूपी जलाशय में स्नानकर, ब्रह्मचर्यरूपी शांति-तीर्थ में नहाकर शांतियज्ञ करते हैं, वही वास्तविक यज्ञ है, वही धर्म है ।" बुद्ध ने भी हिंसामय यज्ञ-याग आदि का विरोध किया था। बौद्धधर्म में त्रिशरण, शिक्षा, शील, समाधि और प्रज्ञा नामक यज्ञ बताये गये हैं जिन में तेल, दही आदि से होम करना और दरिद्रों को दान देना बताया है। जातिवाद के संबंध में यहाँ यह कह देना आवश्यक है कि वेदकाल में जो चातुवर्ण्य की रचना की गई थी उस का अभिप्राय यथायोग्य कार्य-विभाजन से था, परन्तु आगे चलकर जब यह व्यवस्था जन्मगत मानी जाने लगी तो महावीर और बुद्ध को इस का विरोध करना पड़ा, मूलतः इस व्यवस्था में दोष नहीं था।
ब्राह्मण और क्षत्रियों के अतिरिक्त महावीर के अनुयायी अनेक गृहपति (कृषिप्रधान वैश्य) तथा कुम्हार, लुहार, जुलाहे, माली, किसान आदि कर्मकर लोग थे । महावीर ने अनेक म्लेच्छ, चोर, डाकू, मच्छीमार, वेश्या, तथा चांडालपुत्रों को दीक्षा दी थी। स्वयं वे नगर के बाहर लुहार, बढ़ई, जुलाहे, कुम्हार आदि की शालाओं में ठहरते थे और उन्हें धर्मोपदेश देकर अपने धर्म का प्रचार करते थे । सच पूछा जाय तो जैनधर्म का मार्ग सब के लिये खुला था, वह धर्म जनता का था और उस में कोई भी आकर दीक्षित हो सकता था । शास्त्रों में कहा है कि महावीर के समवशरण (धर्मसभा) में किसी भी जाति का मनुष्य आकर
४९ उत्तराध्ययन १२ ५° दीघनिकाय, कूटदन्त सुत्त
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com