Book Title: Mahavir Vardhaman
Author(s): Jagdishchandra Jain
Publisher: Vishvavani Karyalay

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Page 32
________________ समानता-जन्म से जाति का विरोध प्रकार आठ तरह के मद बताते हुए कहा है कि जो पुरुष इन मदों के कारण अन्य धार्मिक पुरुषों का अनादर करता है, वह स्वयं धर्म का अनादर करता है, क्योंकि धार्मिक पुरुषों के बिना धर्म नहीं चलता । यहाँ सम्यग्दर्शन से युक्त चांडाल को भी पूजनीय बताकर उस के प्रति सन्मान प्रकट किया है। रविषेण आदि प्राचार्यों ने पद्मपुराण आदि शास्त्रों में गुणों मे जाति मानकर उक्त सिद्धांत का समर्थन किया है। आगे चलकर जैन नैयायिकों ने भी जातिवाद के खंडन में अनेक तर्क उपस्थित किये हैं। दूसरी जगह हरिकेश नामक चांडाल-कुलोत्पन्न जैन भिक्षु का उल्लेख आता है। एक बार हरिकेश मुनि किसी यज्ञशाला में भिक्षा माँगने गये; वहाँ जातिमद से उन्मत्त राजपुरोहित ने उन्हें भिक्षा देने से इन्कार कर दिया और कहा कि यज्ञ करनेवाले जाति और विद्यायुक्त ब्राह्मण ही दान के सत्पात्र हैं। इस पर हरिकेश ने उपदेश दिया कि क्रोध आदि वासनाओं के मन में रहते हुए केवल वेद पढ़ लेने से अथवा अमुक जाति में पैदा हो हित्वा अहं ब्राह्मण दारुदाहम्, अज्झत्थं एव जलयामि जोति । निच्चग्गिनी निच्चसमाहितत्तो, अरहं अहं ब्रह्मचर्य चरामि ॥ (संयुत्तनिकाय, ब्राह्मणसंयुत्त १,६) अर्थ हे ब्राह्मण ! लकड़ियाँ जलाने से शुद्धि नहीं होती, यह केवल बाह्य शुद्धि है। मैं बाह्य शुद्धि को त्यागकर आध्यात्मिक अग्नि जलाता हूँ; मेरी अग्नि हमेशा जलती रहती है, मैं हमेशा उसमें तप्त रहता हूँ, मैं अहंत हूँ, और मैं ब्रह्मचर्य का पालन करता हूँ रत्नकरण्ड श्रावकाचार १.२५-२६ " ५.१९४; ६.२०९-१०; ११.१९४-२०४ " देखो प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ० १४३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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