Book Title: Laghu Nayachakrama Author(s): Devsen Acharya, Vinod Jain, Anil Jain Publisher: Pannalal Jain Granthamala View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय श्री दिग. जैन अतिशय क्षेत्र, पपौरा जी के पुस्तकालय में मुझे माणिकचन्द्र दिग. जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित “नयचक्रादि संग्रह" नामक ग्रंथ उपलब्ध हुआ था । इसी में “लघु नयचक्रम्” श्री देवसेनाचार्य विरचित प्रकाशित हुआ है । लघुकाय यह ग्रंथ मुझे नय की विवेचना विषयक श्रेष्ठ ग्रंथ मालूम पड़ा । पूर्व में मैंने इसका अनुवाद कहीं देखा भी नहीं था। कुछ विद्वानों से इस ग्रंथ के अनुवाद विषय जानकारी प्राप्त करना चाही, यह ही ज्ञात हुआ कि इसका अनुवाद नहीं हुआ है। इस कार्य को करने के लिए मैंने नय-विषयक ग्रंथो का अध्ययन प्रारंभ किया है । तथा इसके फलस्वरूप इस ग्रंथ के लिये कुछ भावार्थ लिखें । इस कार्य के करते समय नय विषयक बहुत से भ्रम निवारित हुए। मुझे उस समय अहसास हुआ कि नय विषयक ग्रंथो को अध्ययन जैन धर्म के अध्येता को सर्वप्रथम करना चाहिये। क्योंकि "नय जिनागम के मूल हैं ।” नयों के ज्ञान के बिना पदार्थ के स्वरुप का यथार्थ निर्णय संभव नहीं है तथा तत्त्व निर्णय के बिना ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि नय ज्ञान की मोक्षमार्ग में अत्यधिक उपयोगिता है। नय चक्र के कार्य को पूर्ण करने की भावना रखते हुए भी मैं उसे पूर्ण नहीं कर सका। मढ़िया जी गुरूकुल में आकर मैंने ब्र. अनिल जी के साथ पुनः कार्य प्रारंभ किया । और परिमाण स्वरुप कार्य पूर्ण हो गया , आवश्यकतानुसार इस ग्रंथ में कुछ प्रसंगों को नय विषयक ग्रंथों से अति अनिवार्य जानकर संकलित भी किया है। यह सब कुछ आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के आर्शीवाद का ही सुफल है। पूर्व में भी हम लोगों ने कुछ ग्रंथों का कार्य किया है । गुरुकृपा बिना कुछ भी संभव नहीं होता है। जिसके पास गुरुकृपा है उसके दुष्कर कार्य भी सुकर हो जाते हैं- आशा है गुरुदेव की कृपा के पात्र हम लोग हमेशा बने रहेंगे। इस कार्य का जन सामान्य तथा विद्वानों तक पहुंचाने के लिए इसका प्रकाशन किया जा रहा है । आशा है इससे सभी लोग लाभान्वित होंगे। ग्रंथका प्रतिपाद्य - इस ग्रंथ में 86 गाथाएँ हैं । मंगलाचरण में वीर प्रभु को नमस्कार कर नय चक्र को कहने की प्रतिज्ञा कर, नय का स्वरूप, नय के द्वारा स्यादाद का ज्ञान तथा वस्तु की प्रतिपत्ति भी नय ज्ञान के बिना संभव नहीं है , इत्यादि विवेचना के पश्चात् नयो में नव भेद- द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिक नय, नैगम नय, संग्रहनय, व्यवहारनय, ऋजुसूत्र नय, समभिरुढ़नय, शब्दनय एवंभूत नय इन सभी के भेद प्रमेदों का वर्णन किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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