Book Title: Krambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 4
________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ m चार प्रकार का पुरुषार्थ करना चाहिए अर्थात् ये चारों पुरुषार्थ क्रमश: करने योग्य हैं यही पुरुषार्थ है, वे हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से प्रात:काल तो धर्म क्रिया अर्थात् देवदर्शन, पूजन स्वाध्यायादि धर्म क्रिया करनी चाहिए। तदुपरान्त दिवस में अर्थोपार्जन का कार्य करना चाहिए तथा रात्रि में कामसेवन फिर मोक्ष तो वृद्धावस्था में करने योग्य कार्य है। इसप्रकार के उपदेश से भोले अज्ञानी जीवों को मिथ्यामार्ग में धकेलते हैं। प्रश्न : उक्त चार प्रकारके पुरुषार्थों का वर्णन तो जिनवाणी में भी आता है ? उत्तर : उक्त चारों प्रकार के पुरुषार्थों का जिनवाणी में कथन तो आता है यह सत्य है; लेकिन इसका स्वरूप जो बताया जाता है, वह अज्ञानियों की विषय लोलुपता का परिचायक है और मनगढन्त कल्पना है। उक्त कथन का ऐसा अभिप्राय नहीं है। ऐसी रागपोषकसंसारवर्द्धक व्याख्या जिनवाणी में न तो है ही और न हो ही सकती है; क्योंकि जैनधर्म तो वीतराग परिणति है और उसका मार्ग भी वीतरागता पोषक ही होता है, रागपोषक नहीं। जिनवाणी का उक्त कथन, वास्तव में आत्मा के वीर्य अर्थात् शक्ति के उत्थान के प्रकार बतानेवाला है; उनकी हेय-उपादेयता बतानेवाला नहीं है। उपादेय तो मात्र एक वीतराग मार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग ही है। संज्ञी आत्मा की शक्ति (वीर्य) का प्रयोग चार प्रकार के भावों में होता है - (१) धर्म अर्थात् कषाय की मंदता के भावों में (२) अर्थोपार्जन संबंधी अशुभ भावों में (३) पाँच इन्द्रियों के विषयों के सेवन के अशुभ भावों में (४) मोक्ष अर्थात् वीतराग परिणतिरूपी आत्मकल्याण के भावों में। उक्त चारों प्रकार के पुरुषार्थों में अर्थ एवं काम पुरुषार्थ तो पापबंध के कारण होने से क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ सबप्रकार से हेय ही हैं धर्म पुरुषार्थ कषाय मंदता के भाव होने से पुण्यबंध का कारण है; किन्तु ज्ञानी को मोक्षमार्ग में निमित्त एवं सहचारी होने पर इन भावों को कथंचित् उपादेय भी कहा गया है और मोक्ष पुरुषार्थ तो वीतरागी परिणति होने से सर्वत्र एवं सर्वदा परम उपादेय है। असंज्ञी जीव को मन नहीं होता फिर भी आत्मा के वीर्य (शक्ति) का स्फुरण-उत्थान तो होता ही है; इसलिये उसके भी चार प्रकार हैं; १. अहार २. भय ३. मैथुन यहाँ मैथुन का अर्थ काम सेवन नहीं लगाना वरन् प्राप्त इन्द्रिय के विषय सेवन की चाहना - इच्छा है। ४. परिग्रह (संग्रह करने के भाव)। इन चारों को जिनवाणी में संज्ञा के नाम से कहा है; क्योंकि ये जीवमात्र में होती हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा में चेतना है; अतः वह प्रतिसमय चेतना की जाग्रतिरूप कार्य तो करेगी ही करेगी; जब वह परिणमन करती है तो उसको शक्ति प्रदान करनेवाला आत्मा में वीर्य नाम का गुण है। उसका स्फुरण-उत्थान तो प्रतिसमय होता ही है; असैनी को मन रहित होने पर संज्ञाओं के रूप में होता है और सैनी को मन सहित होने से ४ पुरुषार्थों के रूप में होता है । इसप्रकार उक्त चारों पुरुषार्थ सैनी जीव के वीर्य का उत्थान का प्रकार बतानेवाले हैं; हेय-उपादेयता के लिए नहीं। उक्त पुरुषार्थों का विपरीत स्वरूप तो अज्ञानी विषयलोलुपी पुरुषों के द्वारा विकसित कर लिया गया है। निष्कर्ष यह है कि उक्त चारों पुरुषार्थों में उपादेय तो मात्र एक मोक्ष पुरुषार्थ ही है, बाकी तीनों पुरुषार्थ तो मोक्षमार्ग के घातक होने से सदैव एवं सर्वत्र हेय ही हैं। उनमें से धर्म पुरुषार्थ अगर मोक्षमार्ग में साधक हो तो उसे भी कथंचित् उपादेय कहा है। वर्तमानPage Navigation
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