Book Title: Khartargacchacharya Jinmaniprabhsuriji Ko Pratyuttar
Author(s): Tejas Shah, Harsh Shah, Tap Shah
Publisher: Shwetambar Murtipujak Tapagaccha Yuvak Parishad
View full book text
________________ द्वारा प्रतिष्ठित किया गया हो, तो इतने मात्र से क्या पूरा तीर्थ खरतरगच्छ का हो गया? शाबाश ! इतने दिनों तक देवकुल पाटक तीर्थ की सार-संभाल तो ली नहीं और जब तपागच्छीय आचार्य ने तत्रस्थ स्थानकवासी बने हुए पुरे गाँव को अथाग प्रयासों के द्वारा समझाया एवं लाखों रुपयों का व्यय करवाकर एवं समय देकर जीर्णोद्धार एवं तत्रस्थ श्रावकों का उद्धार कार्य सफलता पूर्वक किया / तब पीछे से यह तो खरतरगच्छ का है, ऐसा कहना किस कल्याणकारी मानसिकता का परिचायक है ? 7. इसी तरह अन्य तीर्थों के विषय में समझ सकते हैं, क्योंकि हस्तिनापुर, कंपिलपुर वगैरह तीर्थ तो कल्याणक भूमियाँ है, अतः वहाँ पर तो प्राचीन काल से मंदिर आदि रहे ही थे / कालक्रम से वहा पर किसी खरतरगच्छीय आचार्य ने जीर्णोद्धार आदी कराये होंगे अथवा कोई पगलिये बिठाये होंगे / परंतु इतने मात्र से वे कल्याणक भूमियों के तीर्थ खरतरगच्छ के नहीं हो जाते / वे तो सकल संघ के ही थे और रहेंगे / वहीवट की डोर कभी खरतरगच्छ की प्रमुखता में थी और आज तपागच्छ यह कर्तव्य सुचारुरूप से निर्वाहकर रहा है / इसमें हडपने की बात कहाँ आई ? 8. मूल बात तो यह है कि "शतपदी ग्रन्थ जो सं. 1219 में अञ्चलगच्छीय आचार्य ने बनाया है, उसमें उन्होने खरतरगच्छीय आचार्य के द्वारा अपने पास में एक पेटी रखना एवं उसमें प्राप्त हुए गुरुपूजन के दान द्वारा कालधर्म के बाद अपने गुरुओं के पगलिये बनवाकर जगह-जगह स्थापित करने की प्रवृत्ति शुरु की गई थी, यह बताया है।" इससे समझ सकते है कि किन्हीं प्राचीन तीर्थों में अगर कोई खरतरगच्छीय प्राचीन पगलिये आदि मिल भी जावें तो भी उतने मात्र से यह कहना बडी भूल होगी कि वह खरतरगच्छीय तीर्थ ही है या था / इसी तरह और भी अनेक अन्य प्राचीन गच्छों, आचार्यों और उनके ग्रंथों को खरतरगच्छ का बताने की व प्रस्थापित-प्रसारीत करने की कुटिल नीति भी पूरी तरह से बंद करें / 9. खरतरगच्छ द्वारा सम्राट अकबर प्रतिबोधक के रूपमें जगदगुरु विजय हीरसूरीश्वरजी ही होने के तथ्य को छुपाकर व निषिद्ध कर के खरतरगच्छीय आचार्य जिनचंद्रसूरीश्वरजी को ही प्रचारित करने की और इस /