Book Title: Khartargacchacharya Jinmaniprabhsuriji Ko Pratyuttar
Author(s): Tejas Shah, Harsh Shah, Tap Shah
Publisher: Shwetambar Murtipujak Tapagaccha Yuvak Parishad
View full book text
________________ संशोधन कर सर्वप्रथम प्रकाश में लाने वाले है तपागच्छीय श्रमणगण / क्या आप इस सद्भाव को आगे हमेशा के लिए मिटा देना चाहते हो? आपके पत्र से ऐसा लगा कि आप का दावा है कि आप इतिहास के गहरे और प्रामाणिक अध्येता है। यदि आप सच ही इतिहास का यथार्थ ज्ञान रखते है तो हमारा आपसे निवेदन है कि 1. आप अब से स्वयं खरतरगच्छ को सबसे प्राचीन गच्छ के रूप में बतलाना व प्रासारित करना तात्कालिक रूप से सर्वथा बंद कर दे एवं खरतरगच्छ के और लोगों से भी बंद करवा दे / कोई भी राजा अपनी मृत्यु के वर्षों बाद किसी को पदवी दे, यह बात करना किसी सच्चे इतिहासज्ञ के लिए उचित है ? इतिहास के साक्ष्य गच्छ के रूप में खरतर शब्द का प्रयोग ही विक्रम की चौदहवीं सदी जितने लंबे अंतराल के बाद का बताते है / हाँ, आचार्य श्री जिनदत्तसूरि के साथ गच्छाभिधान से भिन्न अन्य ही एक खास अर्थ में "खरतर" शब्द जुडा होने के ऐतिहासिक प्रमाण जरुर उपलब्ध है। 2. इसी तरह आप नवांगी टीकाकार श्रीमद् अभयदेवसूरीश्वरजी को भी खरतरगच्छीय बताने व प्रसारित करने का शीघ्रतया बंद करें एवं आपके लोगों से भी बंद करवाएँ / यह स्पष्ट है कि पू. अभयदेवसूरिजी मात्र पांच कल्याणकों को ही मानते थे, जबकि छ: कल्याणकों की मान्यता के बिना कोई "खरतर" हो ही नहीं सकता। 3. स्तम्भन तीर्थ नवाड्गी टीकाकार अभयदेवसूरिजी द्वारा प्रगट हुआ था / जब अभयदेवसूरिजी ही खरतरगच्छ के नहीं थे, तो स्तम्भन तीर्थ खरतरगच्छ का कैसे? 4. धनपाल कवि ने स्वयं तिलकमंजरी में अपने गुरु का नाम महेन्द्रसूरि लिखा है, तो उन्हें वर्धमानसूरि या जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य बताकर, धनपाल कवि एवं शोभनमुनि को खरतरगच्छीय सिद्ध करना कहाँ तक उचित - 5. आयड तीर्थ तो तपागच्छ के नामकरण से संबद्ध है, अतः 800 साल से वह तपागच्छ से जुड़ा हुआ है एवं मेवाड के राणाओं का तपागच्छ के साथ घनिष्ठ संबंध था / अत एव मेवाड में प्रायः तपागच्छ के श्रावक एवं मंदिर मिलते है। 6. देवकुल पाटक का एक 52 जिनालय अगर खरतरगच्छीय आचार्य