Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura

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Page 4
________________ इस विवेचनसे स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र में कर्मोदय और कर्म उदीरणामें नरकगति आदिके योग्य क्षेत्र, एकेन्द्रियादि भव, शिपिर आदि काल और पुद्गलांके परिणामरूप गृह, वस्त्र, भोजन, धन आदि बाह्य खामग्नीको हाह्य निर्मितरपमें स्वीकार किया गया है। श्रीगोम्मटसार कर्मकाण्ड कर्मशास्त्रका प्रमुख ग्रन्थ है । इसके प्रथम अधिकारमें नामादि चार निक्षेपों द्वारा वर्म पदका व्याख्यान करते हुए द्रव्यनिक्षेपके दूसरे भेद नोआगमयतम के निरूपण के प्रसंगसे जरायो तीन भेद किये गये है-ज्ञायकदारीर, भावि और तद्वय. लिरिक्त। इनमें से ज्ञायझदारीरका एक भेद च्यावित है । इसकी व्यारुपा करते हुए वहाँ पर बसलाया है कि जो मर ग विषवेदन, रक्तक्षय, भय, शस्त्र प्रहार और संक्लेशवश तथा छ्वासोच्छ्वासके निरोधसे होता है उसकी च्यावित संज्ञा है । स्पष्ट है कि यहाँपर शरीरके त्यागपूर्वक भरणमें तुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक बाह्य संयोगको मुख्वतारो यह संज्ञा रखी गई है। यहाँ बाय संमोग बाध निमित्त है और उसको निमित्तकर शरोरके त्यागपूर्वक भरण होना नैमित्तिक कार्य है। इस अपेक्षाखे इग़की च्यावित संज्ञा रखी गई है। गत शरीरसे च्यावित शरीरका भेद दिखलाना ही इसका मुख्य प्रयोजन है। इस प्रकार इस कथन में बाह्य सामग्रीको जहाँ व्यवहार हेतुरूपसे स्वीकार किया गया है वहाँ स्वत शरीरको विवेचन के प्रमंगरो भी उसके प्रथम भेद इंगिनीमरणमें गी स्व-परोपचाररूप बाह्य निमित्तको स्वीकार किया गया है। समागिरगा का इंगिनीभरण एक भेद है यह बुद्धि पूर्वक उपचारको निमित्तार होता है यह इसका तात्पर्य है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इस प्रकार गोम्मटसार कर्मकाण्डके इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि किस अवस्थामें वर्तमान आयुकी उदीरणा किस बाह्य सामग्रीको निमित्तकर होती है । किसी भी वर्मके उदयका कोई न कोई बाय निमित्त अवश्य होता है ऐसा कर्मशास्त्रका अभिप्राय है और इसी लिए सदयतिरिक्त नोभागम द्रभ्यनिक्षेपके द्वितीय भेद नोकर्मका निरूपण करते हुए इसी गोम्मटमार कर्मकाण्ड में प्रत्येक मल व उत्तर प्रवृतियों के नोकर्म ( बाध निमित्त) का पृथक पृथक् विचार किया गया है। पहीं बतलाया है कि-- इष्ट अन्न-पानादि सातवेदनीयके नोकर्म ( सातादीयक उदयमें वाह्य निमित्त हैं और अनिष्ट अन्न-पानादि असातावेदनीयके नोकर्म है (१-७३)। छह आयतन सम्बक्स्य प्रकृति के नोकर्म है अर्थात् सम्यक्त्व प्रकृति के उदयमें बाध निमित्त है, छह अनायतन मिथ्यात्व प्रतिके नोलाम हैं तथा दोनों सम्यमिथ्यात प्रऋतिके नोकर्म हैं (१-७४)। मिथ्या आयतन अर्थात् फुदेवादिक अनन्चा नुवन्धी चनुक के नोकर्म है, शेष कषात्रों के अपने अपने योग्य मिथ्या शास्त्र आदि नोकर्म हैं (१-७५)। स्त्री शरीर आदि स्त्रीवेद आदिके नोकर्म है, विदूषक आदि हास्य कर्म के नोकर्म है, सुपुत्र आदि रतिकर्मक नोवाम हैं (१-७६)। इष्टवियोग और अनिष्ट मंयोग आदि अरवि कर्मके नोनाम हैं, मूल सुपुत्र आदि शोक कर्मके नोकर्म है तथा सिंहादि और अत्रि आदि द्रव्य भययुगलने वापसे नोकर्म हैं ( १-319) आदि । यहाँ पर हमने कुछ ही वो उदा गौर उदीरणाका वाह्य गिमित्त क्या है हमका उल्लेख किया है । कर्मकाण्डमें तो इसका सभी कर्मोकी अपेक्षा विस्तारसे विचार विया गया है, जो कपायाभृत के उक्त कृधनके अनुरूप है। हमें विश्वास है कि आगमके अभ्याली ग़भी धर्मबन्धु इस विषयमें अपना वार्मशास्त्र के अनुकुल दृष्टिकोण बनाते समय इन तथ्यको ध्यान में रखेंगे। हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि चरणानुयोग और प्रथमानुयोगमें बाह्य सामग्नीका प्रायः पुण्यपापके फलरूपमें निर्देश दृष्टिगोचर होता है, किन्तु उन अनुपोगोंमें वाह्य साधनका फलरूपसे प्रतिपादन करना ही इसका मुख्य कारण है। ये बाह्य साधन कहीं विस्रना मिलते हैं और कहीं इनके मिलनेमें जीवका योग और विकल्प निमित्त होता है । ___ यह 'कदि श्रावलियं पवेसेइ' इत्यादि गाथाको प्रथम श्याख्या है। इसकी दूसरे प्रकारले व्याख्या करते हुए वहाँ बतलाया है कि इसके प्रथा पाद द्वारा उदीरणाकी, द्वितीय पाद द्वारा प्रकृति प्रवेशकी

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