Book Title: Kasaypahudam Part 07 Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 7
________________ विषय-परिचय पूर्व में प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिका विचार कर आये हैं । प्रकृतमें प्रदेशविभक्तिका विचार करना है । कर्मों का बन्ध होने पर तत्काल बन्धको प्राप्त होनेवाले ज्ञानावरणादि आठ या सात कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसकी प्रदेश संज्ञा है । यह दो प्रकारका है – एक मात्र बन्धके समय प्राप्त होनेवाला द्रव्य और दूसरा बन्ध होकर सत्ता में स्थित द्रव्य । केवल बन्धके समय प्राप्त होनेवाले द्रव्यका विचार महाबन्धमें किया है । यहाँ वर्तमान बन्धके साथ सत्ता में स्थित जितना द्रव्य होता है उस सबका विचार किया गया है। उसमें भी ज्ञानावरणादि सब कर्मों की अपेक्षा विचार न कर यहाँ पर मात्र मोहनीयकर्मकी अपेक्षा विचार किया गया है । मोहनीयकर्मके कुल भेद अट्ठाईस हैं । सर्व प्रथम इन भेदों का आश्रय लिये बिना और बाद में इन भेदोंका आश्रय लेकर प्रस्तुत अधिकार में विविध अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे प्रदेशविभक्तिका साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है। यहाँ पर जिन अनुयोगद्वारोंके आश्रय से विचार किया गया है वे अनुयोगद्वार ये हैं- भागाभाग, सर्वप्रदेशविभक्ति, नोसर्वं प्रदेशविभक्ति, उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, जघन्य प्रदेशविभक्ति, अजघन्य प्रदेशविभक्ति, सादिप्रदेशविभक्ति, अनादिप्रदेशविभक्ति, ध्रुवप्रदेशविभक्ति, अध्रुवप्रदेशविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । मात्र उत्तरप्रदेशविभक्तिका विचार करते समय सन्निकर्ष नामक एक अनुयोगद्वार और अधिक हो जाता है । कारण स्पष्ट है । भागाभाग — इस अनुयोगद्वार में उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इन चार पदोंका आयकर एक बार जीवों की अपेक्षा और दूसरी बार सत्ता में स्थित कर्म परमाणुओं की अपेक्षा कौन कितने भागप्रमारा हैं इसका विचार किया गया है, इसलिए इस दृष्टिसे भागाभाग दो प्रकारका है— जीवभागाभाग और प्रदेशभागाभाग । जीवभागाभागका विचार करते हुए बतलाया है कि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके विषय में जानना चाहिए। यह ओघ प्ररूपणा है । आदेशसे सब मार्गणाओं में अपनी-अपनी संख्याको जानकर यह भागाभाग समझ लेना चाहिए । प्रदेश भागाभागका विचार करते हुए सर्व प्रथम तो सामान्यसे मोहनीय कर्मकी अपेक्षा प्रदेशभागाभागका निषेध किया है, क्योंकि अवान्तर भेदोंकी विवक्षा किये बिना मोहनीय कर्म एक है, इसलिए उसमें भागाभाग घटित नहीं होता। इसके बाद ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की अपेक्षा सामान्यसे मोहनीय कर्मको कितना द्रव्य मिलता है इसका विचार करते हुए बतलाया गया है कि आठ कर्मों का जो समुच्चयरूप द्रव्य है उसमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे सब द्रव्यमेंसे अलग करके बचे हुए शेष बहुभागप्रमाण द्रव्य के आठ पुञ्ज करके आठों कर्मों में अलग-अलग विभक्त करदे। उसके बाद जो एक भाग बचा है उसमें पुनः आलिके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आवे उसे अलग करके शेष बहुभागप्रमाण द्रव्य वेदनीयको दे दे । पुनः बचे हुए एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो बहुभागप्रमाण द्रव्य शेष रहे उसे मोहनीयको दे दे । लब्ध द्रव्यमें पुनः आवलि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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