Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 10
________________ ज्ञानोपकरण-पाटी-पुस्तक-कॉपी आदि जलाने का परिणाम यह पाया कि आज इस जन्म में वह जन्म से गूंगी-बहरी बनी । यह बांधे हुए ज्ञानावरणीय कर्म की भारी सजा थी। उसी तरह पति का जीव भी दूसरे जन्म में किसी के घर में पुत्र रूप से उत्पन्न हुमा । वरदत्त कुमार नाम रखा गया। वह भी जन्म जात गूंगा-बहरा। दोनों बड़े हुए, शादी कहां से हो ? जन्म जात निरक्षर भट्टाचार्य रहे। इस तरह बांधे हुए ज्ञानावरणीय कर्म का भारी उदय जब सामने आता है तब सजा कैसी मिलती है ? प्राप जानते ही हैं कि पाप की सजा बड़ी भारी होती है, और कर्म की गति न्यारी होती है। ज्ञानावरणीय कर्म का परिणाम ज्ञान की प्राशातना, ज्ञानी की पाशातना, ज्ञानोपकरण पुस्तकादि साधनों का इतना अनादर करना आदि अशुभ पाप प्रवृत्ति करने से यही सजा सामने आती है । बांधे हुए ज्ञानावरणीय कर्म जब उदय में प्राते हैं तब उसकी सजा ठीक वैसी ही मिलती है । ज्ञान प्राप्त नहीं होता । बुद्धि पूरी अच्छी नहीं मिलती। ज्ञानेन्द्रियां पूरी प्राप्त नहीं होती। प्रांख से अन्धे हों, या प्रांखे कमजोर हों, प्रांखों से पूरा साफ दिखाई न दे. या प्रांखों के विविध रोग उत्पन्न हो, या काना-पन मिले। इस तरह प्रांखों की विकलता इस ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से प्राप्त होती है। उसी तरह मुख रोग होते हैं. मुख से पूरा बोला ही न जाय, तोतडा-बोब्डा बने, अक्षर पूरे उच्चारित न हो, या सर्वथा बोल ही न सके वैसा गूंगा हो जाय, या टेढा-मेढा मह मिले। या कर्ण रोगी हो। कानों से साफ सुनाई ही न दे, या बहरापन जन्म से मिले या बाद में आवे । ज्ञानतंतू पूरे खिले ही न हो, स्मरण शक्ति का प्रभाव होता है। पढ़ा हया याद ही न रहे, सुना-देखा हुप्रा याद न पावे । बुद्धि काम ही न करे । पढ़ने में रुचि ही न लगे, पढ़ाई कि इच्छा ही न हो । पढें तो निंद आवे, सिर दर्द करने लगे। पढ़ा हुआ सब भूल जाय, यादशक्ति बिल्कुल न हो, या चंचल वृत्ति वाला बनता है । अनपढ़ ही रह जाय। या थोड़ा पढ़कर आगे न पढ़ सके । मन्दमति बनता है । मानसिक रोगी बनता है । दिमाग से विकल बनता है। मूर्ख-पागल बनता है। अविचारी कार्य करने वाला बनता है। अज्ञानी बुद्ध बनता है। किंकर्तव्यमूढ बनता है। अविवेकी होता है। जिससे सारासार, हेय-झेय उपादेय का विवेक नहीं रहता। पांचों ज्ञानेन्द्रियां कम ज्यादा विकल प्राप्त होती हैं। शरीर के अंगोपांगादि पूर्ण संपूर्ण नहीं मिलते। सावयव सर्वाग सम्पन्न नहीं बनता। न्यूनाधिक अंगोपांग से कुरूप भद्दा बनता है । लोक में निंदनीय बनता है। विद्या चढ़े ही नहीं। २५२ कर्म की गति न्यारी

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