Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 41
________________ पूछकर निगोद का सूक्ष्म स्वरूप स्पष्ट रूप से समझा । जिज्ञासापूर्वक प्रभु से पूछा कि - हे भगवन् ! जैसा आपने निगोद का सूक्ष्मतम स्वरूप मुझें समझाया है क्या वैसा ही अभी भरतक्षेत्र में कोई समझा सकता है ? क्योंकि वर्तमान में भरतक्षेत्र में कोई केवलज्ञानी नहीं है । उत्तर में सीमधरस्वामी भगवान ने इन्द्र से कहा- हे इन्द्र ! भरतक्षेत्र में वर्तमान में प्रार्य कालकसूरि ( कालकाचार्य) श्रुतज्ञान के आधार पर मेरे जैसा ही निगोद का स्वरूप समझा सकेंगे । यह सुनकर इन्द्र महाराजा एक वृद्ध का रूप लेकर भरतक्षेत्र में आचार्य कालकसूर के पास आये । परीक्षा करने हेतु से वृद्ध का रूप लेकर लकड़ी के सहारे झुककर चलते हुए और लम्बी श्वास के साथ प्राहें भरते हुए इन्द्र महाराजा आर्य कालकसूरि के पास आकर पूछने लगे – हे कृपालु ! मैं बहुत ही वृद्ध हूँ, वृद्धावस्था से दु:खी भी हूं, अतः आप मेरी हस्तरेखा देखकर यह बताइये कि अब मेरा कितना श्रायुष्य शेष है ? मेरे ऊपर बड़ी कृपा करिये, क्योंकि मैं अकेला हूं, मेरे पुत्रों ने घर से निकाल दिया है । इसलिए अब ऐसा लगता है कि आयुष्य जल्दी पूरा हो जाय तो बहुत अच्छा । अतः कृपया हाथ देखकर बताइये कि कितना आयुष्य शेष है ? कहिये भगवन् ! .. क्या पाँच वर्ष ? या दस वर्ष ? यह सुनकर गुरु महाराज ने कहा - इससे और ज्यादा | इन्द्र ने पूछा- क्या बीस वर्ष ? या पचास वर्ष ? गुरु महाराज ने कहा - प्रोर ज्यादा - बहुत ज्यादा । इन्द्र-- अरे भगवन् ! बहुत वृद्ध हो गया हूँ । अब कितना जीना बाकी है ? प्रार्य काल सूरि ने कहा- हे इन्द्र ! बार-बार क्या पूछते हो ? आप तो स्वर्गाधिपति इन्द्र हो, और २ सागरोपम में कुछ कम इतना आयुष्य शेष है । 4 बस इतना सुनकर इन्द्र महाराज समझ गये कि महाराज ज्ञानी हैं, और मुझे सही अर्थ में पहचान गये हैं । इन्द्र ने अपना मूल स्वरूप बना लिया । हाथ जोड़कर इन्द्र ने कालकाचार्य से निगोद का सही सूक्ष्म स्वरूप पूछा । उत्तर में काल सूरि ने निगोद का सही एवं शुद्ध स्वरूप बताया । यह सुनकर इन्द्र महाराज ने प्रसन्न होकर कहा कि-सीमंधरस्वामी भगवान की कही हुई हकीकत सत्य साबित हुई, बस इतना कहकर इन्द्र महाराज अपने स्थान पर चले गये । यह है तकेवली का स्वरूप, सही बात है कि श्रुतज्ञानी अगाध श्रुतज्ञान का अवधारण करके केवलज्ञानी सर्वज्ञ जैसा स्वरूप प्रतिपादित कर सकते हैं क्योंकि सर्वज्ञ द्वारा ही उपदिष्ट श्रुतज्ञान परम्परा की विरासत के रूप में श्रुतज्ञानी को कर्म की गति न्यारी २८३

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