Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 44
________________ के विद्वानों को यह ज्ञान प्राप्त हो इसलिए उन्होंने शास्त्रों की बहुत बड़ी सेवा की है। वर्तमान ४५ आगम शास्त्र अंगसूत्र उपांगसूत्र पयन्ना छेदसूत्र मूलसूत्र । ११ + १२ + १० + ६ + ४ +२= ४५ . अनुयोग द्वार तथा नन्दिसूत्र इग्यार अंग उपांग बार, दश पयन्ना जाणिये छ छेद ग्रन्थ पसत्थ सत्था, मूल चार वखाणिये ॥ अनुयोगद्वार उदार नन्दिसूत्र जिनमत गाइये, वृत्ति-चूर्णो-भाष्य पिस्तालोश आगम ध्याइये ॥ आगम अर्थात् पवित्र धर्मशास्त्र | गणधर भगवंतो द्वारा रचित द्वादशांगी एवं १४ पूर्व प्रादि में से वर्तमान में ४५ प्रागम ही शेष रहे हैं। जिनकी संख्या ऊपर बताई गई है। यद्यपि अंगसूत्रों की संख्या १२ थी परन्तु कालान्तर में बारहवें अंगसूत्र “दष्टीवाद" के विच्छेद होने से वर्तमान में अंगसूत्र ११ ही प्रसिद्ध एवं प्रचलित है। इनमें भगवान महावीरस्वामी का मुख्य उपदेश संग्रहीत है । यही जैन शासन में ज्ञान का अपूर्व खजाना गिना जाता है । इतिहास में इन पागमों पर अनेक वृतियाँ, चूर्णीयाँ, भाष्य एवं टीकाएँ लिखी गई। अनेक महापुरुषों ने शास्त्र सेवा का यह महान कार्य किया है । पूज्य शीलांकाचार्य ने प्रथम दो अंगसूत्रप्राचारांग एवं सूत्रकृतांग की टीकाएं लिखी थी। तथा शेष ६ अंगसूत्रों की टीका लिखने का श्रेय पूज्य अभयदेवसूरिजी महाराज को जाता है। इस तरह यह श्रु तज्ञान या शास्त्रज्ञान एक अगाध महासागर हैं । जिस तरह एक महासागर की सीमा का कोई अन्त नहीं हैं उसी तरह श्रुत शास्त्र रूपी महासागर का भी कोई अन्त नहीं हैं। जैसे गोताखोर लोग समुद्र में डुबकियाँ लगाकर मोती या रत्न निकाल सकते हैं वैसे ही अगाध श्रुतसागर में चिन्तन की हुबकियाँ लगाकर महापुरुषों ने तत्त्व रूपी रत्न निकाले हैं। इस बात का प्रमाण स्तुतियों में प्रत्येक २८६ कर्म की गति न्यारी

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