Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 49
________________ के लिए दूसरे अर्थात् स्व इतर अर्यात् अपने से भिन्न ज्ञान की अपेक्षा मानने वाले भिन्न दर्शन है । परन्तु जैन दर्शन ज्ञान को स्वसंवेद्य ही मानता है । इस विषय में ग्रीक दार्शनिक प्लूटो (Plato) का मत है कि-Knowledge is nothing but it is Intutional अर्थात् ज्ञान बाहर से नहीं आता परन्तु अन्दर से ही (मात्मा में से ही) उद्भव होता है ज्ञान प्रात्मा की नीपज है। ज्ञान प्रात्मा का झरना है । ज्ञान का मूल उद्गम स्रोत प्रात्मा ही है । ज्ञान और प्रात्मा गुण-गुणी भाव से अभेद स्वरूप है । ज्ञान गुण है और आत्मा द्रव्य है। द्रव्य अर्थात् गुणी है । गुणगुणी में आधार-प्राधेय सम्बन्ध है अत: "ज्ञानाधिकरणमात्मा" न कहकर जैन दर्शन ने "ज्ञानमयो एवायमात्मा" अर्थात् आत्मा ज्ञानमय ही है । यदि ज्ञान का अधिकरण प्रात्मा को माने तो भेद सम्बन्ध प्राता है । जबकि यहाँ अभेद सम्बन्ध है। यह अभेद भाव दिखाने के लिए "ज्ञानमयो एवायमात्मा" यह कहा गया है। यही वाक्य अभेद भाव को दिखाता है। अतः ज्ञानमय ही 'प्रात्मा है । ज्ञान से भिन्न नहीं हैं । जैसे सूर्य से सूर्य की किरणें भिन्न नहीं हैं तथा दीपक से दीपक का प्रकाश जिस तरह, भिन्न नहीं है उसी तरह आत्मा से ज्ञान भिन्न नहीं है। यह अभिन्नता एवं अभेद दिखाने के लिए ज्ञानमय ही आत्मा कही गई है । अर्थात् प्रात्मा ज्ञान स्वरूप ही है। अतः आत्मा का ज्ञान स्वसंवेद्य ही है। स्वेतर संवेद्य नहीं है। अवधिज्ञानावरणीय कर्म और अवधज्ञिान प्रत्यक्ष के पारमार्थिक , भेद में जो नोइन्द्रियप्रत्यक्ष अर्थात् प्रात्मप्रत्यक्ष की बात की गई है, उसमें क्षायोपशमिक पारमार्थिक प्रत्यक्ष के भेद में अवविज्ञान गिना गया है । यहाँ अवधि शब्द से क्षेत्रीय मर्यादा ली गई है। समस्त बह्मांड में क्षेत्र अनंत अमर्यादित है। इसके सीमित क्षेत्र की किसी निश्चित मर्यादा तक होने वाले ज्ञान को अवधिज्ञान कहा गया है । इसका यह अर्थ है कि लोक परिमित क्षेत्र के स्वर्ग नरक आदि लोक या ऊर्ध्व अधोलोक के सीमित क्षेत्र की मर्यादा या अवधि तक के रूपी पुद्गल पदार्थों का साक्षात्कार होना यह अवधिज्ञान का स्वरूप हैं। यह ज्ञान प्रात्मप्रत्यक्ष होने के कारण अर्थात् बिना किसी इन्द्रिय की मदद के सीधे प्रात्मा से होता है। अतः अवधिज्ञान में इन्द्रियों की अावश्यकता नहीं होती है । तत्रस्थ अर्थात् उस-उस क्षेत्र की सीमा में पड़े हुए रूपी पुद्गल पदार्थों को अवधिज्ञानी कर्म की गति न्यारी

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