Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 72
________________ हो जाएगी । श्रतः क्या करें । कन्धे पर बैठाया और रात्रि में ही जंगल के मार्ग में चल पड़े। दिखाई न देने पर भी चलते ही जा रहे शिष्य का पैर ऊँची-नीची भूमि के खड्डे आदि में गिरते ही कन्धे पर बैठे हुए गुरुं क्रोधित होकर डण्डा मारते थे । ताजे लोच किए हुए सिर पर डण्डा लगते ही खून निकलने लगा । फिर भी नूतन मुनि शिष्य बड़ी अच्छी समता में मन स्थिर करते हुए वेदना को गौण करके भी चलते रहते थे, और गुरु के डण्डे पड़ते रहते थे। ऐसे प्रसंग में भी क्रोध न करके क्षमा समता की उच्चतम भावना में स्थिर मुनि देहभान भूलकर आत्मचिन्तन की धारा में चढ़ गए । पाप दोषों को नष्ट करती हुई आत्मा गुणस्थान श्रेणि में प्रागे बढती हुई क्षपकश्रेणि पर श्रारुढ होकर शुक्लध्यान की धारा में केवलज्ञानी बनी । केवलज्ञान में तो समस्त लोकअंलोक का क्षेत्र बिना आंख के खोले ही दिखाई देने लगा । अब अच्छी तरह चलने वाले शिष्य को प्रभात में खून से लथपथ देखकर गुरु नीचे उतरकर पश्चाताप की धारा में क्षमायाचना करते हुए शिष्य को खमाने लगे । सही दिल से पश्चाताप था । अतः पश्चाताप की बढती हुई धारा में पापकर्म सभी धो गए । सर्वथा सर्व पापों का क्षय होते ही क्षपकश्रेणि में स्थिर गुणस्थानों पर प्रागे चड़ते हुए गुरु को भी केवलज्ञान- केवलदर्शन प्राप्त हुआ। गुरु शिष्य दोनों ही वीतरागी - केवली - सर्वज्ञ बने । समझदार शिष्य ने गुरु को रात के अन्धेरे में प्रसन्नचन्द्र ऋषि को केवलज्ञान-संध्या के समय राजमहल के झरोखे में बैठकर रंग-बिरंगी बादलों को देखकर प्रथम खुश हुये और बाद में रात्रि के अंधेरे में डरावने लगने वाले उन्हीं बादलों को देखकर परिवर्तनशील प्रसार संसार की असारता को समझकर राजा प्रसन्नचन्द्र ने राज-पाट, वैभव भोर परिवार आदि सब कुछ छोड़कर दीक्षा अंगीकार करके साधु बने । श्मशान में एक पैर पर खड़े रहकर दोनों हाथ ऊंचे उठाकर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर राजर्षि, पुत्र के साथ शत्रु राजा युद्ध की विचारधारा में खो गये । मानसिक रूप से वैचारिक युद्ध में चढ़े हुए राजर्षि एक-एक करके अनेक तीर फेंकते गये । अन्त में मुकुट फैंकने के लिए लेने के हेतु से सिर पर हाथ रखा, और सिर केशलोच से मुंडित देखकर एकाएक भान श्राय | राजर्षि सावधान हो गये। मानो स्वप्न में से जगे हुए को स्थान की क्षणिकता दिखाई दी और राजर्षि मानसिक पापकर्म को धोने के लिए पश्चात प की धारा में चढ़े । ध्यानानल ने पापकर्मों की ढ़ेर सारी राशि को देखते ही देखते जलाकर भस्म कर दिया । क्षपकश्रेणि में श्रारूढ़ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि को चारों घनघाती कर्मों का क्षय होते ही केवलज्ञान - केवलज्ञदर्शन प्राप्त हुआ । वीतरागी सर्वज्ञ बने हुए महात्मा सदा के लिए मोक्ष में सिधाये । 1 मरुदेवी माता को केवलज्ञान - भगवान ऋषभदेव की दीक्षा के बाद प्रभु की माता मरुदेवी वृद्धावस्था में तीव्र मोहदशा में डूबकर विलाप करती थी । रात-दिन कर्म की गति न्यारी ३१४

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