Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 43
________________ हैं । इसलिए उन्हें बाल्यावस्था से ही पढ़ने आदि की आवश्यकता नहीं रहती । प्राज हमारा श्र तज्ञानावरणीय कर्म अधिक है और श्रु तज्ञान का प्रमाण अल्प है। फिर भी श्रु तज्ञान की उपासना की तरफ पुरुषार्थ का प्रमाण कम ही देखा जाता है । अतः श्र त-शास्त्र आदि का ज्ञान बढ़ाने की इच्छा वाले को श्रु तज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम करना ही एक मात्र विकल्प है और वह ज्ञान-ध्यान-स्वाध्यायादि श्रु तोपासना से ही सम्भव है । उसके लिए ज्ञानाचार की उपासना शास्त्रों में बताई गई है । जैसे किसी रोग की कोई औषधि होती है, जो रोग को मिटाती है । वैसे ही ज्ञानाचार युक्त ज्ञानोपासना रूपी औषधि से श्र तज्ञानावरणीय कर्म रूपी रोग मिटता है, शरीर में शक्ति की तरह प्रात्मा में ज्ञान का खजाना बढ़ता है । अतः ज्ञानाचारानुसारी ज्ञानोपासना ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय एवं क्षयोपशम करने के लिए औषधि तुल्य कार्य करती है । कल्पातित देवलोक के प्रर्नुत्तर स्वर्ग एवं सर्वाथ सिद्ध विमान प्रादि के देवता प्रायुष्यभर शास्त्रीय विषयों के चिन्तन-मनन में तल्लीन रहते हैं। अद्भुत ज्ञानोपासना करते हैं । वर्तमान में ज्ञानोपासना के बजाय ज्ञान की आशातना एवं विराधना का प्रमाण अधिक दृष्टिगोचर होता है जिसके फलस्वरूप शास्त्रज्ञानादि भी अल्प प्रमाण में ही दिखाई देता है। अभयदेवसूरि की श्रुतोपासना नवांगी वत्तिकार प्रसिद्ध आचार्य महाराजश्री अभयदेवसूरिजी हुए हैं । जिन्होंने अपने प्रायुष्यकाल में ४५ आगमों में प्रमुख जो ११ अंगसूत्र कहे जाते हैं । उनमें से ९ अंगसूत्र की वृत्तियाँ बनाई हैं। अत: वे नवांगी वृत्तिकार कहे जाते हैं । मूल अंगसूत्र जो कि अर्धमागधी भाषा में सारगर्भित स्वरूप में थे, उनका भावार्थ स्पष्ट करने के लिए पूज्यश्री ने संस्कृत भाषा में विस्तार से टीकाएँ लिखी हैं । जिनमें कई पदार्थों का विस्तार से विवेचन किया है । लिखने में समय कम पड़ता था। इसलिए आचार्यश्री ने अपने भोजनकाल में से समय बचाने के लिए प्रायम्बिल की तपश्चर्या शुरू की । प्रायम्बिल में एक ही समय रूक्ष एवं निरस भोजन करने से दूसरा समय काफी बचता था। इस तरह समय बचाकर उन्होंने ६ अंगसूत्रों पर सारगर्भित, महत्त्वपूर्ण वृत्तियां लिखी । लिखते-लिखते करीब १२ वर्ष बीत गये । धाराप्रवाह बद्ध रूप से लिखते ही जा रहे थे। ऐसे समय में उन्हें प्राशाता वेदनीय कर्म जन्य रोग का उदय हुमा । फिर भी रोग की चिन्ता किये बिना लिखते ही गये । भावी पीढ़ी कम की गति न्यारी २८५

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