Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

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Page 39
________________ का तनिक भी प्रयोजन नहीं रहता। अतः उनके लिए असत्य बोलना सम्भव भी नहीं है। एक तरफ तो वीतरागता प्राप्त कर चुके हैं और दूसरी तरफ सर्वज्ञता (पूर्णज्ञान) भी प्राप्त कर चुके हैं। अब किसी विषय का ज्ञान शेष नहीं रहता है। समस्त ब्रह्माण्ड के लोकालोक के अनन्त पदार्थों का अनन्त वस्तु विषयक ज्ञान प्राप्त हो चुका है। वीतरागता की प्राप्ति के कारण असत्य बोलने का कोई कारण या प्रयोजन ही नहीं रहा है तथा सर्वज्ञता की प्राप्ति के कारण असत्य प्रतिपादन का कोई विषय ही नहीं रहा है। किस विषय में असत्य बोलें ? क्योंकि जगत के सभी अनन्त विषयों का ज्ञान संपूर्ण परिपूर्ण है। किसी भी विषय का या एक भी विषय का ज्ञान अधूरा अपूर्ण नहीं हैं तो फिर किस विषय में असत्य बोलें ? असत्य प्रतिपादन में अज्ञान भी प्रबल कारण है। तथा सर्वज्ञ केवली में सर्वथा अज्ञान की सम्पर्ण निवत्ति ही हो चुकी है। अज्ञान का अश भी नहीं रहा है तो फिर असत्य किस विषय में बोलें ? तथा वीतरागता प्राप्त होने के कारण असत्य किसलिए-क्यों बोलें ? इसीलिए जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी एवं वीतराग है उनके कथन (वचन) पर ही सम्पूर्ण श्रद्धा रखनी सम्यग् दर्शन (श्रद्धा) है। अतः सर्वज्ञोपदिष्ट तत्त्व का ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान है। यह निर्विवाद सत्य है। इसलिए ठीक ही कहा कि है-“जं जं जिणेहि पवेइयं तमेव निःसंकं सच्चं"। “जो जो सर्वज्ञ और वीतराग ऐसे जिनेश्वर भगवंतो ने प्रतिपादित किया है वही शंका रहित रूपसे सत्य है" ऐसा मानना या स्वीकारना ही सम्यग् दर्शन है । सम्यग् दर्शन युक्त ज्ञान ही सम्यग् ज्ञान कहलाता है यही सत्य ज्ञान कहा जाता है । सर्वज्ञोपदिष्ट श्रुत-"शास्त्र" शास्त्र ज्ञान को श्रुत ज्ञान कहते हैं । क्योंकि श्रुत का अर्थ है सुना हुआ । किससे सुना हुअा ? ऐसा प्रश्न जरूर उठता है क्या मेरे और आपके द्वारा सुना हुप्रा शास्त्र कहलाएगा ? नहीं। तो फिर श्रुत से शास्त्र अर्थ कैसे लिया जाय ? उत्तर में कहते हैं कि जिनको वीतरागता और केवलज्ञान (अनंतज्ञान) प्राप्त हो चुका हो ऐसे सर्वज्ञ भगवान से सुना हुआ कथन या उपदेश ही श्रुत कहलाता है । सर्वज्ञ केवली भगवान समवसरण में बिराजमान होकर अर्थ रूप से जो उपदेश देते हैं उसे उनके प्रमुख शिष्य गणधर भगवान् सूत्र रूप में रचना करते हैं । आवश्यक नियुक्ति में कहा है कि प्रत्थं भासइ अरहा, सुत्त गुंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्टाए, तओ सुत्त पवत्तइ ॥ प्रा. नि.॥ कर्म की गति न्यारी २८१

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