Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 38
________________ गया हो वही शंका रहित सत्य है । ऐसी मान्यता रखनी यह सम्यग् दर्शन- सच्ची श्रद्धा है । सम्यग् दर्शन से तत्त्व के वास्तविक स्वरूप की श्रद्धा निर्माण होती है । जिस तरह दूध में शक्कर डालने से दूध मीठा मधुर बनता है उसी तरह सम्यग् दर्शन के मिलने से ज्ञान भी सम्यग् सही बनता है । अन्यथा ज्ञान मिथ्याज्ञान के रूप में ही रहता है । अतः शास्त्रकार महर्षि यहां तक कहते हैं कि सम्यग् दृष्टि साधक यदि मिथ्याशास्त्र भी पढ़ता है तो वे उसे सम्यग् रूप में ही परिणमते हैं । उसके सम्यग् दर्शन की वृद्धि में ही सहायक बनता है । क्योंकि दृष्टि सम्यग् है अतः वह ज्ञान भी सम्यग् रूप में ही परिणत होगा । ठीक इससे विपरीत मिथ्यादृष्टि यदि सम्यग् शास्त्र भी पढ़ता है तो उसकी मिथ्यादृष्टि ही रहेगी। क्योंकि प्रथम जब तक दृष्टि, श्रद्धायुक्त नहीं बनती वहां तक उसे सम्यग् शास्त्र भी लाभकर्ता सिद्ध नहीं हो सकते । अतः पहले दृष्टि सुधार आवश्यक है । यह दृष्टि चाक्षुष या चक्षु-दृष्टि से सम्बन्ध नहीं रखती । यह प्रान्तरदृष्टि से सम्बन्धित है । अतः सम्यग् दृष्टि यह प्रान्तर दृष्टि है, सच्ची श्रद्धा है, तत्त्वों की वास्तविकता एवं यथार्थता को स्वीकारने की मान्यता है । इसी सम्यग्दृष्टि से युक्त ज्ञान भी सम्यग् ज्ञान बनता है । ठीक इससे विपरीत मिथ्या दृष्टि का ज्ञान भी मिथ्या ज्ञान या विपरीत ज्ञान कहलाता है । मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञानरूप होता है | अतः सम्यग् दर्शन एवं ज्ञान प्रात्मा के लिए साधक एवं सहायक होते हैं जबकि मिथ्याज्ञान बाधक एवं हानिकारक होता है । अतः साधक को सम्यग् दर्शन एवं सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना ही चाहिए । सर्वज्ञोपदिष्ट ज्ञान - सम्यग् ज्ञान सर्वज्ञोपदिष्ट ज्ञान को ही सम्यग् ज्ञान क्यों कहा जाय ? क्यों नहीं प्रय किसी के द्वारा उपदिष्ट ज्ञान को सम्यग् ज्ञान कहा जाय ? यह प्रश्न यहाँ उचित है । अत: विचार किया जाना चाहिए। छद्मस्थ अर्थात् प्रपूर्ण ज्ञानी एवं रागी -द्वेषी सत्य का चरमं स्वरूप नहीं बता सकता इसलिए सत्यं की चरम सीमा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मूल स्रोत सर्वज्ञ - केवलज्ञानी (पूर्णज्ञानी) तथा वीतरागी का होना अनिवार्य है । वे ही आवश्यक है । एक तरफ जो वीतरागी है उसके लिए असत्य बोलने का कोई कारण ही नहीं है । क्योंकि असत्य राग-द्व ेष के कारण ही बोला जाता है। राम के घर में माया तथा लोभ गिने जाते हैं तथा कोष और मान वे दोनों द्व ेष के अन्तर्गत गिने जाते हैं । अतः ये चारों क्रोध- मान-माया तथा लोभ कषाय के रूप में हैं इन्हीं के कारण मनुष्य असत्य का सेवन करता है । उसी तरह भय तथा हास्य भी असत्य सेवन में कारण है । ये सभी रागी -द्वेषी में ही होते है । इन राग द्वेष का सर्वथा क्षय करके जो वीतरागी - वीतद्वेषी हो जाता है उसमें क्रोधादि कषायों को तथा भय - हास्यादि राग-द्वेष की अंश मात्र भी मात्रा नहीं रहती । श्रतः वे वीतरागी कहलाते हैं । ऐसे वीतरागी के लिए असत्य बोलने कर्म की गति न्यारी २८०

Loading...

Page Navigation
1 ... 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76