Book Title: Karm Ki Gati Nyari Part 05
Author(s): Arunvijay
Publisher: Jain Shwetambar Tapagaccha Sangh Atmanand Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ बहुत ही अच्छा संतोष मिलता था। अन्य सम्प्रदाय एवं समुदाय के जिज्ञासु भी पाते थे। इस तरह सूरिजी का सारा दिन पठन-पाठन एवं प्रश्नोत्तरी में ही बीत जाता था। यहां तक कि भोजन एवं नींद के लिए भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाता था। सूरिजी दिन भर थके-थके रहते थे। दूसरी तरफ दूसरे भाई महाराज खा-पीकर मस्त रहते थे। न कोई चिन्ता थी और न ही कोई चिन्तन था। कहा है कि "निद्रा कलहवि नोदेन च कालो गच्छति मूर्खाणाम्" । मुर्ख मनुष्यों का काल या तो नींद में बीतता है या कलह-कंकास से बीतता हैं या विनोद-हंसी मजाक में समय बीतता है । जबकि विद्वानों का काल-"ज्ञान-ध्यान-चिन्तनेन कालो गच्छति धीमत म्"-ज्ञान-ध्यान और शास्त्र सिद्धान्त के चिन्तन में बुद्धिमान विद्वानों का काल बीतता है । इस तरह दोनों भाई महाराजों का काल व्यतीत हो रहा था । सज्जन का संग जल्दी लगता है या दुर्जन की संगत में रंग जल्दी लगता है ? यह जगत् में प्रत्यक्ष अनुभव की बात है । सज्जन या संत समागम का सत्संग जितना जल्दी रंग नहीं लगता शायद उससे भी ज्यादा दुर्जन का संग रंग जल्दी लगता है। ऐसा ही हुआ पढ़े-लिखे विद्वान ज्ञानी गीतार्थ आचार्य महाराज अपने भाई को देखकर विचार करने लगे-ओ हो ! ये देखो-कितना मस्त है ? खा-पीकर-पाराम से सुख-चैन से सोता हुअा कितना सुखी है ? है कोई चिन्ता या है कोई चिन्तन ? देखो कितना अलमस्त है ? कितना मोटा तगड़ा है ? अरे रे ! और मैं कितना दुबला-पतला हूं ? मैं कितना दुःखी हुँ ? न तो पूरा खाने-पीने का समय मिलता है, और न ही सोने के लिए पर्याप्त समय मिलता है । क्या करूं ? कितना दुःख है ? पर यह सब किस कारण है ? अरे........रे........! मैं खूब ज्यादा पढ़ा हूं इसके कारण है ? अरे........रे ! काश ! अच्छा होता कि मैं भी पढ़ा ही नहीं होता । "मूर्खत्वं हि सखे ममापि रुचित............"। यह एक श्लोक प्राचार्य श्री के स्मृति पटल पर आया, और सोचने लगे ऐसा मूर्खपना मुझे भी मिले । मैं भी मेरे भाई की तरह खापीकर मस्त रहूं। इस तरह अच्छे विद्वान को भी दुर्मति सूझी........और अपने इस निर्णय को आचरण में लाने के लिए सुबह-सुबह आचार्यश्री जंगल जाने के बहाने उपाश्रय से अकेले ही निकल गए। गांव के बाहर दूर एक नदी के किनारे गए। निपट कर वहां समीप में चल रहे एक महोत्सव को देखने गए। नदी किनारे ग्रामीण लोगों का वसन्तोत्सव इन्द्र महोत्सव चल रहा था। हजारों लोग गांवों से पाए थे। साथ में फल-नैवेद्य लाए थे। मध्य में गडे एक लम्बे स्तंभ को सजाया गया था। उस पर फल-नैवेद्य चढाकर, ढोल बजाते हुए उस स्तंभ कर्म की गति न्यारी २५७

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76