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जिन सुर पादप पाय वखार्पु, सांख्य-योग दोय भेदे रे; आतमसत्ता विवरण करता, लहो दुग अंग अखेदेरे.....ष० २ भेद-अभेद सुगत-मिमांसक, जिनवर दोय कर भारीरे; लोकालोक अवलंबन भजियें, गुरुगमथी अवधारीरे......ष०३ लोकायतिक कूख जिनवरनी, अंश विचार जो कीजेरे; तत्त्वविचार सुधा रस-धारा, गुरुगम विण किम पीजेरे? ष० ४ जैन जिनेश्वर वर उत्तम अंग, अंतरंग बहिरंगेरे; अक्षर-न्यास धरा आराधक, आराधे धरी संगेरे............ष० ५ जिनवरमां सघळा दरिशण छे, दर्शने जिनवर भजनारे; सागरमां सघळी तटिनी सही, तटिनी सागर भजनारे..ष० ६ जिनसरूप थई जिन आराधे, ते सही जिनवर होवे रे; शृंगी इलिकाने चटकावे, ते भुंगी जग जोवेरे..............ष० ७ चूर्णि, भाष्य, सूत्र, नियुक्ति, वृत्ति परंपर अनुभवेरे, समय पुरुषना अंग कह्यां ए, जे छेदे ते दुरभव्य रे.....ष० ८ मुद्रा, बीज, धारणा, अक्षर, न्यास, अरथ विनियोगे रे; जे ध्यावे, ते नवि वंचीजे, क्रियाअवंचक भोगे रे. ........ष० ९ श्रुत अनुसार विचारी बोलुं, सुगुरु तथाविध न मिलेरे; क्रिया करी नवि साधी शकियें, ए विखवाद चित्त सघळे रे. .ष०१०
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