Book Title: Jinandji Bhav Jal Par Utar
Author(s): Padmaratnasagar
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

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Page 286
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुं क्रोध अग्निथी बळ्यो, वळी लोभ सर्प डस्यो मने, गळ्यो मानरूपी अजगरे हुं केम करी ध्यावें तने? मन मारूं माया जाळमां मोहन! महा मुंझाय छे, चडी चार चोरो हाथमां चेतन! घणो चगदाय छे. में परभवे के आ भवे पण हित कांई कर्यु नहिं, तेथी करी संसारमा सुख अल्प पण पाम्यो नहिं, जन्मो अमारा जिनजी! भव पूर्ण करवाने थया, आवेल बाजी हाथमां अज्ञानथी हारी गया. ........ अमृत झरे तुज मुखरूपी चंद्रथी तो पण प्रभु!, भीजाय नहीं मुज मन अरेरे! शुं करूं हुं तो विभु!, पत्थर थकी पण कठण मारूं मन खरे! क्यांथी द्रवे?, मरकट समा आ मन थकी हुं तो प्रभु! हार्यो हवे. ........७ भमतां महाभव सागरो पाम्यो पसाये आपना, जे ज्ञान दर्शन चरण रूपी रत्नत्रय दुष्कर घणा, ते पण गया परमादना वशथी प्रभु! कहुं छु खरूं, कोनी कने किरतार! आ पोकार हुं जईने करूं. ठगवा विभु! आ विश्वने वैराग्यना रंगो धर्या, ने धर्मना उपदेश रंजन लोकने करवा कर्या, २७६ For Private And Personal Use Only

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