Book Title: Jinabhashita 2008 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ सम्पादकीय आगमविरुद्ध आचरण परम्परा नहीं है हमारा देश और समाज साधु के प्रति अतिश्रद्धा रखता है। इसका एक मात्र कारण उसकी साधुता है। राग-द्वेष से रहित, वीतरागता की ओर उन्मुख आत्म- केन्द्रित चर्चा और चर्या के कारण वे पूज्य माने गये हैं। जिन साधुओं ने जिन मार्ग का अवलम्बन लिया है, वह आचार्य श्री कुन्दकुन्द आचार्य श्री उमास्वामी और आचार्य श्री समन्तभद्र आदि का मार्ग है, जिसमें सांसारिक अनासक्ति का भाव अन्तर्निहित है। इस मार्ग के विषय में आचार्यश्री समन्तभद्र 'युक्त्यनुशासन' में कहते हैंदयादमत्यागसमाधिनिष्ठं, नयप्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्यमन्यैरखिलैः प्रमादैर्जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ॥ 6 ॥ अर्थात् हे वीर जिन ! आपका मत दया, दम, त्याग और समाधि की निष्ठा, तत्परता को लिए हुए है। नयों तथा प्रमाणों के द्वारा सम्यक् वस्तुतत्त्व को बिल्कुल स्पष्ट करनेवाला है तथा दूसरे सभी प्रवादों से अबाध्य है, अद्वितीय है । यहाँ स्पष्ट भाव है कि भगवान् महावीर का मार्ग दया अर्थात् अहिंसा, दम अर्थात् इन्द्रियों विषयों के प्रति संयम, त्याग अर्थात् राग-द्वेष का विसर्जन और समाधि अर्थात् जीवनान्त में काय और कषायों को कृश करते हुए सल्लेखनापूर्वक शरीर का त्याग करना है। आचार्य श्री उमास्वामी ने यह अवधारणा- 'मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता' के रूप में प्रस्तुत की है। हे भगवन्! आपने जिस वस्तु (आत्म) तत्त्व को उपादेय बताया है वह नय और प्रमाणों के द्वारा स्पष्ट और पुष्ट है। इसका किसी भी अन्य मत या रीति से खण्डन नहीं किया जा सकता । उक्त स्पष्ट दिशा-निर्देश के बावजूद आज देखने में आ रहा है कि हमारे समाज में ऐसे अनेक कार्य हो रहे हैं जो आगम की कसौटी पर किसी भी नय की अपेक्षा से खरे नहीं उतरते। भरतक्षेत्र के चौबीस तीर्थंकरों की उपेक्षा करके विदेहक्षेत्र के विद्यमान बीस तीर्थंकरों और उनमें भी मात्र श्री सीमंधर स्वामी की प्रतिष्ठा की जा रही है। नव निर्माण और नयी विचार-धारा का जो दौर प्रारम्भ हुआ, तो अब थमने का नाम नहीं ले रहा है। अचार्य श्री समन्तभद्र, आचार्य श्री कुन्दकुन्द की वाणी की व्याख्या के नाम पर अपलाप किया जा रहा है। अति सक्रियता से आगमिक जड़ता का खतरा दिखाई देने लगा है। यहाँ प्रस्तुत कतिपय उदाहरण विचारणीय यथा 1. वर्तमान में नवग्रह जिनमन्दिरों का निर्माण और प्रतिष्ठा के आयोजन अनेक स्थानों पर चल रहे हैं, जो किसी भी दृष्टि से आगमसम्मत नहीं हैं। 2. बीसवीं शताब्दी के एक साधु के चरण और मूर्तियाँ सप्रयास आन्दोलन की शक्ल में सैकड़ों स्थानों पर स्थापित की जा रही है, क्या यह इतिहास के साथ मजाक नहीं है? 3. धरणेन्द्र और पद्मावती या अन्य यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियों की प्राणप्रतिष्ठा की जा रही है? आखिर इनमें किनके प्राण फूँके जा रहे हैं? 4. दिगम्बर मुनि / आचार्य की मूर्ति बनाकर उनका प्रतिदिन अभिषेक अरहन्तबिम्ब की तरह किया जा रहा है, जबकि वह कौन सी गति को प्राप्त हुए, यह भी ज्ञात नहीं है । 5. क्या एक साधु अपनी पुरानी पीछी जिसे वह बदलने की भावना कर चुका है या जो संयम पालन के योग्य नहीं रह गयी है उस पीछी को अपने शिष्य या अन्य आचार्य को भेट स्वरूप दे सकता वह भी किसी आकस्मिक स्थिति के लिए नहीं, अपितु अपना प्रेम जताने के लिए? इसी तरह यह क्या जरूरी है कि एक आचार्य या गुरु के जन्म या दीक्षा दिवस पर उसके सभी शिष्य (प्रमुख) अपनेअपने प्रवास स्थल से नयी पीछी भिजवायें, वह भी तब, जबकि एक-एक पीछी की लागत दो-तीन हजार रुपये आ रही हो? 2 फरवरी 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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