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शिखरजी की यात्रा और बाई जी (धर्ममाता चिरौंजाबाई जी)
का व्रतग्रहण
क्षुल्लक श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी प्रातः काल का समय था। माघ मास में कटरा । मोक्ष प्राप्तकर चुकी, वहाँ की पृथिवी का स्पर्श पुण्यात्मा बाजार के मंदिर में आनन्द से पूजन हो रहा था। सब | जीव को ही प्राप्त हो सकता है। रह-रह कर यही भाव लोग प्रसन्नचित्त थे। सबके मुख से श्री गिरिराज की | होता था कि हे प्रभो! कब ऐसा सुअवसर आवे कि वन्दना के वचन निकल रहे थे। हमारा चित्त भी भीतर | हम लोग भी दैगम्बरी दीक्षा का अवलम्बनकर इस दु:खमय से गिरिराज की वन्दना के लिये उमंग करने लगा और | जगत् से मुक्त हों। यह विचार हुआ कि गिरिराज की वन्दना को अवश्य बाई जी का स्वास्थ्य श्वास रोग से व्यथित था, जाना। मंदिर से धर्मशाला में आए और भोजन शीघ्रता | अतः उन्होंने कहा- 'भैया आज ही यात्रा के लिये चलना से करने लगे। भोजन करने के अनन्तर श्रीबाई जी ने | है, इसलिए यहाँ से जल्दी स्थान पर चलो और मार्ग कहा कि 'इतनी शीघ्रता क्यों? भोजन में शीघ्रता करना | का जो परिश्रम है उसे दूर करने के लिये शीघ्र आराम अच्छा नहीं।' मैंने कहा-'बाई जी! कल कटरा से पच्चीस | से सो जाओ। पश्चात् तीन बजे रात्रि से यात्रा के लिये मनुष्य श्री गिरिराज जी जा रहे हैं। मेरा भी मन श्रीगिरिराज | चलेंगे।' आज्ञा प्रमाण स्थान पर आये और सो गये। दो जी की यात्रा के लिये व्यग्र हो रहा है।' बाई जी ने | बजे निद्रा भंग हुई। पश्चात् शौचादि क्रिया से निवृत्त कहा- 'व्यग्रता की आवश्यकता नहीं, हम भी चलेंगे। होकर एक डोली मँगाई। बाई जी को उसमें बैठाकर मुलाबाई भी चलेगी।'
हम सब श्रीपार्श्वनाथ स्वामी की जय बोलते हुए गिरिराज दूसरे दिन हम सब यात्रा के लिये स्टेशन से गया | की वन्दना के लिये चल पड़े। गन्धर्व नाला पर पहुंचकर का टिकट लेकर चल दिये। सागर से कटनी पहुँचे और | | सामायिक क्रिया की। वहाँ से चलकर सात बजे श्री यहाँ से डाकगाड़ी में बैठकर प्रातःकाल गया पहुँच गये। | कुन्थुनाथ स्वामी की वन्दना की। वहाँ से सब टोकों वहाँ श्रीजानकीदास कन्हैयालाल के यहाँ भोजनकर दो | | की यात्रा करते हुए दस बजे श्रीपार्श्वनाथ स्वामी की बजे की गाड़ी में बैठकर शाम को श्रीपार्श्वनाथ स्टेशन | टोंक पर पहुँच गये। आनन्द से श्रीपार्श्वनाथ स्वामी और पर पहुँच गये और गिरिराज के दूर से ही दर्शन कर | गिरिराज की पूजा की। चित्त प्रसन्नता से भर गया। बाई धर्मशाला में ठहर गये। प्रातः काल श्रीपार्श्वप्रभु की पूजाकर | जी तो आनन्द में इतनी निमग्न हुई कि पुलकित वदन मध्याह्न बाद मोटर में बैठकर श्रीतेरापन्थी कोठी में जा | हो उठीं, और गद्गद् स्वर में हमसे कहने लगीं किपहुँचे।
'भैया! यह हमारी पर्याय तीन माह की है, अतः तुम यहाँ पर श्री पं० पन्नालाल जी मैनेजर ने सब | हमें दूसरी प्रतिमा के व्रत दो।' मैंने कहा- 'बाई जी! प्रकार की सुविधा कर दी। आप ही ऐसे मैनेजर तेरापन्थी | मैं तो आपका बालक हूँ, आपने चालीस वर्ष मुझे बालकवत् कोठी को मिले कि जिनके द्वारा वह स्वर्ग बन गई। पुष्ट किया, मेरे साथ आपने जो उपकार किया है उसे विशाल सरस्वती भवन तथा मंदिरों की सुन्दरता देख आजन्म नहीं विस्मरण कर सकता, आपकी सहायता से चित्त प्रसन्न हो जाता है। श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा तो | ही मुझे दो अक्षरों का बोध हुआ, अथवा बोध होना चित्त को शान्त करने में अद्वितीय निमित्त है। यद्यपि | उतना उपकार नहीं जितना उपकार आपका समागम पाकर उपादान में कार्य होता है, परन्तु निमित्त भी कोई वस्तु | कषाय मन्द होने से हुआ है, आपकी शांति से मेरी क्रूरता है। मोक्ष का कारण रत्नत्रय की पूर्णता है, परन्तु कर्मभूमि, | चली गई और मेरी गणना मनुष्यों में होने लगी। यदि चरम शरीर आदि भी सहकारी कारण है।
आपका समागम न होता तो न जाने मेरी क्या दशा होती? ___ सायंकाल का समय था। हम सब लोग कोठी | मैंने द्रव्यसम्बन्धी व्यग्रता का कभी अनुभव नहीं किया, के बाहर चबूतरा पर गये। वहीं पर सामायिकादि क्रिया | दान देने में मुझे संकोच नहीं हुआ, वस्त्रादिकों के व्यवहार कर तत्त्वचर्चा करने लगे! जिस क्षेत्र से अनन्तानन्त चौबीसी । में कभी कृपणता न की, तीर्थयात्रादि करने का पुष्कल
परवरी 2006 जिनभाषित ।।
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