Book Title: Jinabhashita 2008 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ कुन्दकुन्द और उनका जन्मस्थान मूल लेखक : श्री पी०बी० देसाई अनुवादक : डॉ० कन्हैयालाल अग्रवाल दिगम्बरपरम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है, यह इसी से पता चल सकता है कि 'मंगलं भगवान् वीरो .......' वाले मंगलाचरण में भगवान महावीर और गौतमगणधर के बाद मंगलरूप में उनका स्मरण-वन्दन किया जाता है। आज भी उनका विस्तृत इतिहास अज्ञात ही है। कुछ वर्षों पूर्व तक तो हमें उनके जन्मस्थान का भी निश्चित पता नहीं था। अपने महान् उपकारी आचार्यों के प्रति हम कितने अकतज्ञ एवं असंवेदनशील हैं, यह इससे प्रकट है। उन्हीं भगवान् कुन्दकुन्द के जन्मस्थान आदि के संबंध में प्रामाणिक जानकारी आपको विद्वान् लेखक की इस रचना में मिलेगी। सामान्य रूप में जैनधर्म और प्रमुख रूप में दक्षिण । सम्बन्ध में कुछ प्रकाश डाल सकूँ। भारतीय जैनधर्म महान् आचार्य कोण्डकुन्दाचार्य का | आचार्य का वास्तविक नाम पद्मनन्दी था और ऐसा अत्यधिक ऋणी है, जिन्होंने अपने विशाल व्यक्तित्व से | प्रतीत होता है कि अपने निवासस्थान के कारण उन्होंने उसके विकास में बहुत अधिक योगदान दिया। आध्यात्मिक | कोण्डकुन्दाचार्य का लोकप्रिय विरुद धारण कर लिया ख्याति प्राप्त, एक नई वैहारिक व्यवस्था के श्रेष्ठ संघ- | था। इस सूचना का स्पष्ट संकेत इन्द्रनन्दी के श्रुतावतार टनकर्ता और इन सबसे अधिक जैन आगमों पर उत्कृष्ट | में मिलता है। इस लेखक के अनुसार आचार्य का निवास टीकाओं के सुप्रसिद्ध लेखक, उन्होंने सम्पूर्ण जैनधर्म और | स्थान कुन्दकुन्दपुर में था। इस तथ्य की पुष्टि आभिलेखिक दर्शन के क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों की अमिट छाप साक्ष्यों से होती है। 1133 ई० के मैसूर राज्य (अब छोड़ी है। कर्नाटक) के हासन जिला स्थित बस्तिहल्ली अभिलेख दुर्भाग्य से उनके जीवन के बारे में बहुत कम प्रख्यात मुनि कोण्डकुन्द के चतुर्दिक् यश का उल्लेख जानकारी है, लेकिन उनके सम्बन्ध में जो थोड़ी बहुत करता है, जो शान्ति की भावना का मानों उद्गम स्थान जानकारी है भी, वह आख्यानों और अनुमानों के रूप था और कोण्डकुन्दे से आया था और चारणों से वन्दित में है। यहाँ तक कि उनके नाम या नामों का स्वरूप | था। मल्लिषेण के श्रवणबेलगोल अभिलेख में इस आचार्य और प्रकार भी विभिन्न कल्पनाओं पर आधारित है। ऐसी का उल्लेख कोण्डकुन्द के रूप में किया गया है, जिससे स्थिति में राजाराम महाविद्यालय, कोल्हापुर के डॉ० ए० संकेत मिलता है कि उसकी उत्पत्ति कोण्डकुन्द या एन० उपाध्ये ने सम्पूर्ण उपलब्ध सामग्री को एकत्र करने | कुण्डकुन्द से हुई। जैसा कि हम बाद में देखेंगे, कोण्डकुन्द और इस आचार्य के जीवन सम्बन्धी पक्ष को भलीभाँति । (कुन्दे) स्थान का मूल नाम है। कालान्तर में उसका समझने के लिये मार्ग प्रशस्त करने का स्तुत्य प्रयास | संस्कृत निष्ठ रूप कुन्दकुन्द हो गया। किया है। मैंने अपने ग्रन्थ 'दक्षिण भारत में जैनधर्म' | आज भी, आंध्रप्रदेश के अनन्तपुर जिलान्तर्गत गूटी के लिये पुरातात्त्विक और आभिलेखिक स्रोतों का अध्ययन तालका में एक गाँव ऐसा है जो इस नाम की समस्या करते समय कोण्डकुन्दाचार्य से सम्बन्धित अनेक सन्तोष- | को हल कर देता है। पहले यह क्षेत्र कर्नाटक प्रदेश जनक तथ्यों का अवलोकन किया है। विषय की प्रथम | का अंग था। आंध्रों के प्रभाव में आने पर आजकल श्रेणी की सामग्री संकलित करने के विचार से मैंने इस | यह गाँव कोनकोण्डला कहलाता है। लेकिन इसका सही आचार्य से सम्बन्धित एक स्थान का भ्रमण किया और नाम कोण्डकुन्दी है। स्थान नाम का यह रूप आज भी सेतु-स्थित पुरावशेषों का परीक्षण किया। इस व्यक्तिगत | स्थानीय जनता और बोलचाल की भाषा में प्रचलित है। छानबीन के कारण अब मैं ऐसी स्थिति में हूँ कि जैसा कि इस ग्राम से 1071 ई० के एक आद्य अभिलेख कोण्डकुन्दाचार्य और विशेष रूप से उनके जन्मस्थान के ! से, जिसमें उसका नाम कोण्डकुन्दे बताया गया है, विदित 18 फरवरी 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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