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लोकगीतों में कुण्डलपुर और बड़े बाबा
श्रीमती डॉ० मुन्नीपुष्पा जैन पवित्र सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर मेरी जन्मभूमि दमोह। वाचिक रूप से प्रचलित तथा कुछ आज के लिखित (म०प्र०) के समीप होने के कारण बचपन से ही मेरे | अन्यान्य स्रोतों से प्राप्त उन कुछैक बुंदेली लोक भजनों अतिश्रद्धास्पद इष्टदेव यहाँ के बड़े बाबा की भव्य एवं | को (सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर एवं बड़े बाबा से संबंधित) विशाल प्रतिमा एवं इस तीर्थ की वंदना-अर्चना करने | उदाहरणार्थ इस निबंध के माध्यम से संकलित करना का सुयोग प्राप्त होता रहा है। साथ ही इस क्षेत्र की | इसलिए उचित समझा, ताकि ये आधुनिकीकरण के इस अपनी बुंदेली लोक-भाषा-संस्कृति और लोकगीतों के | युग में लुप्त न हो जायें। प्रति गहरा लगाव भी आरम्भ से होना स्वाभाविक है। ये बुंदेली बोली लोकभजन प्रायः सामूहिक रूप जब यहाँ प्रचलित बुंदेली लोकगीतों की ओर मेरा विशेष | से गाये जाते रहे हैं। इस तीर्थ के आस-पास एवं दूरध्यान गया, तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि इनमें से दूर बसे गाँवों से लोग मिलजुलकर पैदल तथा बैलगाड़ी अनेक लोकगीतों में तो सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर और यहाँ | आदि साधनों से बड़े बाबा के दर्शनों को आते थे और के इष्टदेव बड़े बाबा समाये हुए हैं। ऐसे अनेक लोकगीत | इन लोकभजनों को गाते हुए अपनी मंजिल तक पहुँच जिन्हें मैंने अपनी पूज्य दादी-नानी, माँ और पास-पड़ौस जाते थे। सारा संसार एक तरफ और बड़े बाबा के प्रति की बुजुर्ग महिलाओं से बचपन में सुने थे, वे आज अगाध भक्ति एक तरफ। अपने मन को संबोधित करते स्मति के माध्यम से अपने आप जुबान पर आ गये।। हुए लोग भाव-विभोर होकर गाते रहे हैं कि
किसी भी क्षेत्र की बोली के लोकगीत उस क्षेत्र- चलो-चलो रे सकल परवार, लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सुहावनो। विशेष की पहचान होते हैं, क्योंकि इनमें अपनी परम्पराओं. इक शोभा बड़े बाबा की, पधारे पलौथी लगाये॥ रीति-रिवाजों और लोक-संस्कृति आदि को सुरक्षित रखने
लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सुहावनो॥ की अपूर्व क्षमता होती है। प्राचीन समय में ये गीत |
इक शोभा उनके मंदर की, जहाँ छत्र चढ़े सौ साठ। किसी पुस्तक में लिखित नहीं होते थे, अपितु वाचिक
इक शोभा उनके पर्वत की, जहाँ शेरभरे हुंकार॥ (श्रुति) परम्परा से स्वभावतः पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित
लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सुहावनो॥
इक शोभा वापी तालों की, जहाँ यात्री करे स्नान। होते आये हैं, इसलिए ये अब तक जीवित हैं। किन्तु
इक शोभा धरमशाला की, जहाँ यात्री बसें सौ साठ॥ अब इस टेलिविजन आदि के आधुनिक युग में इन
लाल कुण्डलपुर क्षेत्र सहावनो । लोकगीतों की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है। इसलिए अब
कुछ इसी तरह बड़े बाबा की भक्ति की महिमा इनकी वाचिक परम्परा के साथ इनका लेखन संकलन
की बानगी देखिएअनिवार्य हो गया है। इन लोकगीतों में जो अपनापन,
मन छोड़ सकल संसार, सरन चल कुण्डलपुर बाबा। अपनी मिट्टी की सुगंध और अपनों तथा अपनी परम्पराओं
बाबा का बड़ा दरबार, सरन चल कुण्डलपुर बाबा॥ आदि से निरन्तर जडे रहने का जो स्वाभाविक भाव | What
तीर्थस्थली बुन्देलखण्ड की, कीरत परम सुहावनी। है वह अन्यत्र दुर्लभ है। साथ ही ये कृत्रिमता से दूर |
सकल काम पूरण, मोक्खधाम, जा देवन की रजधानी॥ सहज-सरल रूप में हृदय में समा जाते हैं। लोकगीतों | हर पथ तीरथ को जावै, बड़े भाग्य इतै जो आवै॥ को याद रखने हेतु कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। | पावै भवसागर पार, सरन चल कुण्डलपुर बाबा ॥ विशेषता यह कि लोकगीतों को याद रखने के लिए पढ़ा- | कुण्डलगिरि गौहर सर सुन्दर, निर्मल नीर नहाने। लिखा या अत्यधिक तेजबुद्धि होना भी आवश्यक नहीं | ता पे मंदिर भाल देख, मन के पाप हिराने॥ होता। क्योंकि जैसे ही कोई इन लोकगीतों को समूह | चले इतै वन्दना कर लें, मन खाली झोली भर ले। में गाना शरू करता है, सभी अन्य लोग सहज ही स्वर सरन चल कुण्डलपुर बाबा, सब सुख ले हाथ पसार॥ में स्वर मिलाकर गाने लगते हैं।
मूरत बड़ी विशाल, पद्मासन बाबा जी सोहें। भक्त सिरोमन जन-जीवन सब दरसन कर मोहे॥
22 फरवरी 2008 जिनभाषित
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