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होता है कि यही इस स्थान का मूल नाम होना चाहिए। का गुरु होना चाहिये। प्रायः दसवीं शती का एक अन्य इस सन्दर्भ में एक स्थानीय परम्परा को भी ध्यान में | अभिलेख० निषधि-स्मारक है, जो आचार्य नागसेम देव रखना उपयुक्त होगा, जिससे यह प्रमाणित होता है कि | के सम्मान में उत्कीर्ण किया गया। यह ग्राम कोण्डकुन्दाचार्य का निवास स्थान था। लगभग विभिन्न स्थानों से प्राप्त दो अन्य अभिलेख अत्यन्त दो हजार सालों से इन क्षेत्रों में प्रचलित परम्परा से न | महत्त्वपूर्ण हैं। इनमें से पहला कैलासप्प गुट्ट' नामक केवल यह विश्वसनीय रूप से प्रमाणित हो जाता है, | एक दूसरी पहाड़ी के एक शिलाफलक पर उत्कीर्ण है। अपितु यह यहाँ उद्धृत अन्य साक्ष्यों को भी पुष्ट करता | इनमें से चट्ट जिनालय नामक मंदिर को प्रदत्त भूमि और
अन्य वस्तुओं के दिये जाने का उल्लेख है। इस मंदिर संयोग से आचार्य के निवास स्थान का पता मिल | का निर्माण नालिकब्बे नामक महिला द्वारा अपने स्वर्गीय जाने पर अब हम स्वयं उक्त स्थान पर ध्यान देंगे और पति की स्मृति में कोण्डकुन्देय तीर्थ में कराया गया था। वहाँ के प्राचीन अवशेषों का विश्लेषण करेंगे, जिसमें उक्त दान महामण्डलेश्वर जोयिमय्यरस द्वारा जो पश्चिमी जिनमूर्तियाँ और जैन अभिलेख सम्मिलित हैं। कोण्ड- | चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के राज्यकाल में १०८१ कोण्डला या कोण्डकुन्दी ग्राम के बहुसंख्यक जैन पुरावशेष | ई० में सिंगवाड़ी क्षेत्र पर शासन कर रहा था, दिया गया। रसा-सिद्धूल गुट्ट नामक पहाड़ी पर ढूँढे जा सकते हैं, | इस अभिलेख से दो महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती है, पहली जो ग्राम के उत्तर में दो फल्ग की दूरी पर स्थित है। यह कि इस स्थान का नाम कोण्डकुन्दे था और दूसरी रसासिद्धूल गुट्ट, जो एक तामिल नाम है, उसका अर्थ | यह कि यह एक तीर्थक्षेत्र या जैनों द्वारा मान्य धार्मिक है रसासिद्ध की पहाड़ी और प्रतीत होता है कि इस | क्षेत्र था। नाम ने अलौकिक महत्त्व प्राप्त कर लिया। इस पहाड़ी | दूसरा अभिलेख उसी गाँव के आदिचन्न केशव की चोटी पर एक जिनालय है, जिसके तीनों ओर की | मंदिर के अग्रभाग पर स्थापित शिलाफलक पर उत्कीर्ण दीवारें पहाड़ी काटकर बनायी गयी हैं, जिस पर छत | है। दुर्भाग्य से यह अभिलेख क्षतिग्रस्त हो गया और नहीं है। इस जिनालय में तीर्थंकरों की दो खड्गासन | कहीं कहीं कट गया है। इसलिये इसका सम्पूर्ण वर्ण्य प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित है, जिनके साथ तिहरे छत्र और सेवा | विषय हमें प्राप्त नहीं है। यह एक जैन अभिलेख है। में शासन देवता हैं। मूर्तियाँ लाल ग्रेनाइट की बनी हैं | जिनशासन की परिचित शैली से प्रारम्भ होकर यह और लगभग दो फुट छः इंच ऊँची हैं। समान्य रूप | अभिलेख इस स्थान की प्रसिद्धि का वर्णन निम्नांकित से उन्हें 13वीं शती ई० का कहा जा सकता है। लोक- | पंक्तियों में करता है। जैसा कि अभिलेख से विदित होता विश्वास के अनुसार ये प्रतिमाएँ रससिद्ध या अलौकिक है यह स्थान महान आचार्य पद्मनन्दि भट्रारक का जन्म मुनियों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जिन्हें रससिद्धि के स्थान होने के कारण संसार में विख्यात था। उन्होंने रहस्य ज्ञात थे। इस जिनालय के पीछे एक चट्ठान पर | अनेकान्त सिद्धान्त से, जो भवसागर पार करने का कमल पर खड़ी एक बड़ी जिन-प्रतिमा बनी है। समीपवर्ती | वास्तविक जहाज है, सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था। एक अन्य चट्टान पर एक वर्तुलाकर यन्त्र की रेखाकृति | वर्णन में पद्मनन्दि का नाम दो बार और चरणों का अस्पष्ट उत्कीर्ण है, जिसमें अलौकिक महत्त्व सन्निहित है। | संकेत मिलता है जो महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हम उपरिवर्णित
उक्त जिनालय से थोड़ी ही दूर के शिलाखण्डों | बस्तिहल्ली का वर्णन स्मरण कराना चाहेंगे। जैसा कि के चट्टानी पार्यों पर अनेक अभिलेख उत्कीर्ण हैं। उनमें | हम पहले कह चुके हैं पद्मनन्दि कोण्डकुदाचार्य का नाम से कुछ सातवीं शती के अपरिष्कृत अक्षरों से युक्त हैं | था और कुछ अभिलेखों में चारणों से आचार्य को सम्बन्धित और अन्य दसवीं और ग्यारहवीं शती के हैं। इनमें से करते हुए उल्लेख किया गया है। इस प्रकार यह प्रतीत अनेक में जैन आचार्यों के नाम लिखे हैं, उनमें से कुछ | होता है कि प्रस्तुत अभिलेख के पद्मनन्दि का तादात्म्य का यहाँ उल्लेख किया जायेगा। प्रथम वर्ग के एक लेख कोण्डकन्दाचार्य से स्थापित करने में हम उचित मार्ग में 'सिंगनन्दि द्वारा सम्मानित' का वर्णन है। निश्चितरूप पर हैं। पनः अभिलेख कोण्डकन्द अन्वय का उल्लेख से यह सम्मानित व्यक्ति इस अभिलेख के लेखक सिंगनन्दि करता है। यह अभिलेख स्वतः पश्चिमी चालुक्य नरेश
फरवरी 2008 जिनभाषित 19
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