Book Title: Jinabhashita 2008 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ अवसर आया...' इत्यादि भूरिशः आपके उपकार मेरे । को देखकर करते हैं। शास्त्र में यद्यपि मुनि-श्रावक धर्म ऊपर हैं। आप जिस निरपेक्षवृत्ति से व्रत को पालती हैं | का पूर्ण विवेचन है, तथापि जो शक्ति अपनी हो उसी मैं उसे कहने में असमर्थ हूँ। और जब कि मैं आपको | के अनुसार त्याग करना। व्याख्यान सुनकर या शास्त्र पढ़कर गुरु मानता हूँ तब आपको व्रत , यह कैसे सम्भव हो | आवेगवश शक्ति के बाहर त्याग न कर बैठना। गल्पवाद सकता है? बाई जी ने कहा- 'बेटा! मैंने जो तुम्हारा | में समय न खोना। प्रकरण के अनुकूल शास्त्र की व्याख्या पोषण किया है वह केवल मेरे मोह का कार्य है। फिर | | करना। 'कहीं की ईट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनवा भी मेरा यह भाव था कि तुझे साक्षर देखें। तूने पढ़ने | जोड़ा' की कहावत चरितार्थ न करना। श्रोताओं की योग्यता में परिश्रम नहीं किया। बहुत से कार्य प्रारम्भ कर दिये। देखकर शास्त्र वाचना। समय की अवहेलना न करना। परन्तु उपयोग स्थिर न किया। यदि एक काम का आरम्भ | निश्चय को पुष्ट कर व्यवहार का उच्छेद न करना, करता, तो बहुत ही यश पाता। परन्तु जो भवितव्य होता क्योंकि यह दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। 'निरपेक्षो नयो मिथ्या' है वह दुर्निवार है। तूने सप्तमी प्रतिमा ले ली, यह भी यह आचार्यों का वचन है। यदि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक मेरी अनुमति के बिना ले ली, केवल ब्रह्मचर्य पालने नय में परस्पर सापेक्षता नहीं है, तो उनके द्वारा अर्थक्रिया से प्रतिमा नहीं हो जाती, १२ व्रतों का निरतिचार पालन की सिद्धि नहीं हो सकती। इनके सिवाय एक यह बात भी साथ में करना चाहिए, तुम्हारी शक्ति को मैं जानती | भी हमारी याद रखना कि जिसकाल में जो काम करो, हूँ, परन्तु अब क्या? जो किया सो अच्छा किया, अब | सब तरफ से उपयोग खींच कर चित्त उसी में लगा हम तो तीन मास में चले जावेंगे, तुम आनन्द से व्रत | दो। जिस समय श्री जिनेन्द्र देवकी पूजा में उपयोग लगा पालना, भोजन का लालच न करना, वेग में आकर त्याग | हो, उस समय स्वाध्याय की चिन्ता न करो और स्वाध्याय न करना, चरणानुयोग की अवहेलना न करना तथा आय | के काल में पूजन का विकल्प न करो। जो बात न के अनुकूल व्यय करना, अपना द्रव्य त्यागकर पर की | आती हो उसका उत्तर न दो, यही उत्तर दो कि हम आशा न करना, 'जो न काहु का तो दीन कोटि हजार।' | नहीं जानते। जिसको तुम समझ गये कि गलत हम कह दूसरे से लेकर दान करने की पद्धति अच्छी नहीं। सबसे | रहे थे, शीघ्र कह दो कि हम वह बात मिथ्या कह प्रेम रखना, जो तुम्हारा दुश्मन भी हो उसे मित्र समझना, | रहे थे। प्रतिष्ठा के लिये उसकी पुष्टि मत करो। जो निरन्तर स्वाध्याय करना, आलस्य न करना यथा समय | तत्त्व तुम्हें अभ्रान्त आता है, वह दूसरे से पूछ कर उसे सामायिकादि करना, गल्पवाद के रसिक न बनना, द्रव्य | नीचा दिखाने की चेष्टा मत करो। विशेष क्या कहें? का सदुपयोग इसी में है कि यद्वा तद्वा व्यय नहीं करना, जिसमें आत्मा का कल्याण हो वही कार्य करना। भोजन हमारे साथ जैसा क्रोध करते थे वैसा अन्य के साथ | के समय जो थाली में आवे उसे सन्तोषपूर्वक खाओ। न करना, सबका विश्वास न करना, शास्त्रों की विनय | कोई विकल्प न करो। व्रत की रक्षा करने के लिये करना, चाहे लिखित पुस्तक हो, चाहे मुद्रित। उच्च स्थान | रसना इन्द्रिय पर विजय रखना। विशेष कुछ नहीं। पर रखकर पढ़ना, जो गजट आवें उन्हें रद्दी में न डालना, इतना कहकर बाई जी ने श्रीपार्श्वनाथस्वामी की यदि उनकी रक्षा न कर सको तो न मँगाना, हाथ की टोंक पर द्वितीय प्रतिमा के व्रत लिये और यह भी व्रत पुस्तकों को सुरक्षित रखना और जो नवीन पुस्तक अपूर्व लिया कि जिस समय मेरी समाधि होगी उस समय एक मुद्रित हो उसे लिखवाकर सरस्वती भवन में रखना। वस्त्र रखकर सबका त्याग कर दूंगी-क्षुल्लिका वेष में यह पञ्चमकाल है। कुछ द्रव्य भी निज का रखना।। ही प्राण विसर्जन करूँगी। यदि तीन मास जीवित रही निज का त्याग कर पर की आशा रखना महती लज्जा | तो सर्व परिग्रह का त्याग कर नवमी प्रतिमा का आचरण की बात है। अपना दे देना और पर से माँगने की अभिलाषा | करूँगी। हे प्रभो पार्श्वनाथ! तेरी निर्वाण भूमिपर प्रतिज्ञा करना घोर निन्द्य कार्य है। योग्य पात्रको दान देना। | लेती हूँ, इसे आजीवन निर्वाह करूँगी। कितने ही कष्ट विवेकशून्य दान की कोई महिमा नहीं। लोकप्रतिष्ठा के | क्यों न आवें, सबको सहन करूँगी। औषध का सेवन लिये धार्मिक कार्य करना ज्ञानी जनों का कार्य नहीं। | मैंने आज तक नहीं किया। अब केवल सूखी वनस्पति ज्ञानीजन जो कार्य करते हैं, वह अपने परिणामों की जाति | को छोड़कर अन्य औषध सेवन का त्याग करती हूँ। 14 फरवरी 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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