Book Title: Jinabhashita 2008 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ का थर्मामीटर आप ढूँढना चाहोगे, तो न मिला है, न | साधन मैं कब प्राप्त करूँगा, घर में शादी है, वैभव हो मिलेगा। यह दिव्यज्ञान का ही विषय है कि किसके पास | तो भी सोचता रहता है, सदैव उदासी छाई रहती है कि दर्शनमोहनीय का क्षय/उपशम/क्षयोपशम है? किसके पास | ये बाहरी लक्षण हैं। कई लोग कहते हैं महाराज हम उदय है? बाहर से दिखना चाहिए सच्चे देव-गुरु-शास्त्र | चाहते तो नहीं थे फँसना, मगर 2-3 लोगों ने मिलकर के प्रति समर्पण का भाव, मार्ग यदि है तो यह है, यही | फँसा दिया। अच्छा आप कुछ कहकर हमें मत फँसाओ है। प्रतिमा के समाने जाते समय आप यही भाव रखते | हम जानते हैं ऐसे थोड़े ही फँसाया जाता है, मुनिवत् हैं कि ये ही भगवान् हैं, दूसरे नहीं हो सकते ऊपर- | बैठ जाओ देखें कौन फँसाता है? ऊपर से ना-ना और ऊपर से ही नहीं, अन्दर से भी उसी की शरण में जाऊँगा, अन्दर से हाँ-हाँ बस जरा सी अभिव्यक्ति कर दी। तो मेरे कर्म की निर्जरा होगी, उसी के ऊपर श्रद्धान करूँगा | सम्यग्दर्शन, ज्ञान होने के उपरान्त वह स्वयं विषय कषायों तो मेरे कर्म की निर्जरा होगी, ऐसे दृढ़भाव सम्यग्दृष्टि | में फँसना नहीं चाहेगा, और उसे कोई फँसा नहीं सकेगा, के हैं। दूसरे के पास जाने की बात तो दूर, यहाँ आकर फँसा भी ले तो कब तक फँसायेगा? एक न एक दिन भी दूसरे भावों की शरण नहीं है। हे भगवान् ! मुझे कर्म | उठकर बाहर आ ही जायेगा। मैं अपनी आँखों से देख निर्जरा करनी है, आप जैसा बनना है, इसके लिए आपकी | लें किशरण में आया हूँ व तब तक आपकी शरण लूँगा, जब दर्शन मोहनीय का क्षय हुआ कि नहीं, इस प्रकार तक कि आपकी शरण में स्थिर नहीं हो जाऊँगा। यह | का जीवन में कभी भी प्रयास नहीं करना चाहिए, क्योंकि बाहरी पहिचान सम्यग्दर्शन की है। प्रशम, संवेग, आस्तिक्य | यह सूक्ष्म परणति है जिसे हम इन आँखों से (क्षायोपशमिक अनुकम्पा ये चार जहाँ हों, वहाँ सम्यग्दर्शन बनता है। ज्ञान से) पकड़ नहीं सकते। हमेशा उदासीन/शाँत रहना और चिन्तन करना कि संसार | सम्यग्दर्शन होने के उपरान्त वह स्थायी बना रहे में क्या रखा है? यह भी कोई नियम नहीं। दीक्षा ली, एक साथ रत्नत्रय समझने के लिए घर में शादी हो रही है, बारात | को प्राप्त कर लिया और अन्तर्मुहूर्त के अन्दर नीचे आ आई खूब धूमधाम चल रही है, शादी हो गई, बारात गये। कोई पाँचवें, कोई चौथे, कोई प्रथम गुणस्थान में लौट गई, अब तो मजा नहीं आ रहा है, ऐसा लगता | आ गया और जीवनकाल पर्यन्त जो चर्या ग्रहण की थी है जैसे भवन खाने को दौड़ रहा है। क्यों? भवन तो वह निर्दोष पल रही है। अन्दर घटना बढ़ना होता है वही है, वही रंग रोगन, सब कुछ वही, लेकिन फिर | वह जानना तो दिव्यज्ञान का विषय है। इसलिए हमें तो भी अच्छा नहीं लग रहा। जिस प्रकार सब कुछ होते | यही ध्यान रखना चाहिये कि राग-द्वेष हमारे लिए अभिशाप हुए भी वहाँ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन हैं और रागद्वेष से अतीत होना ही वरदान है, उसी की होने के उपरान्त फिर पंचेन्द्रियविषय अच्छे नहीं लगते। शरण लेंगे, उसी का प्रयास करेंगे, उसी की साधना करेंगे, छोड़ो (अपना अपना निवास स्थान) ईसरी चलो, क्यों? | यही बनाये रखो तो भी पर्याप्त है। अतः चारित्र अंगीकार अच्छा नहीं लगता क्योंकि मार्ग है तो यही, जीवन में | करते समय सम्यग्दर्शन है या नहीं यह शंका नहीं करना संसारी प्राणी विषयों में सुख मान रहे हैं जबकि वस्तुतः| चाहिये। विषयों में सुख है ही नहीं। परद्रव्यों को जो ढूँढ रहे | आप चारित्र के लेते समय ऐसी शंका करते हो हैं और उनमें सुख मान रहे हैं वे पश्चाताप करेंगे, क्योंकि | कि सम्यग्दर्शन है या नहीं है तो हम यह कहते हैं कि परिग्रह महापाप माना जाता है। इसका फल जब मिलेगा | आप जो स्वाध्याय करते हो, और यदि सम्यग्दर्शन नहीं तब मालूम पड़ेगा। आचार्य कहते हैं-'बह्वारम्भपरिग्रहत्वं | है तो स्वाध्याय परम तप कैसे होगा? सम्यग्दर्शन होगा नारकस्यायुषः,' बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के माध्यम | तभी तो स्वाध्याय परम तप है और तप भी इसे मुनियों से नरकायु का आस्रव होता है। नरकों में जाना पड़ता की अपेक्षा से कहा है। आपका भी है, लेकिन आपका है। अतः सम्यग्दृष्टि सोचता है कि, हे भगवन्! इनको षट्कर्म है। और आपका भी षट्कर्म तब बन सकता कैसे ज्ञान मिले? इस प्रकार अपायविचय धर्मध्यान करता | है, जब आपने मूलगुण धारण कर लिये हों। और षट्कर्म है। यह दूसरे को देखकर भी हो जाये व अपने को | तो पंच अणुव्रत की सुरक्षा के लिये हैं। पाँच अणुव्रत भी देखकर हो जाये। मैं रागद्वेष कब मिटाऊँ इसका अपाय | तो आपने लिये नहीं, तो षट्कर्मो का यह स्वाध्याय आपका अर्थात् दुःख कब दूर होगा, अभाव कब होगा, सच्चा । षट्कर्म भी नहीं माना जायेगा। और षट्कर्म नहीं माना - फरवरी 2008 जिनभाषित , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36