Book Title: Jinabhashita 2008 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 9
________________ पल्ले तो यह पड़ रही है कि वस्तुतः आप हमें उपदेश | की शक्ति रखते थे। भगवान् से भी पूछ डाला क्यों धारण देकर के इकट्ठे करने में लगे हुए हो, तो उसका बुरा | करें? बहुत कुछ कहा तब अन्त में कहा हाँ यह युक्ति प्रभाव पड़ेगा। यह उल्टा उपदेश देते हैं, हमें छुड़वा देते | भी है और अनुभूत भी। जो रागी-द्वेषी होता है वह पक्षपात हैं और खुद ले लेते हैं, लेकिन जिसकी दृष्टि वास्तव | की बात कह सकता है। आप रागी, द्वेषी न होने के में समीचीन हो गई उसका श्रद्धान हो जाता है- पर पदार्थ कारण पक्षपात की बात नहीं कहेंगे सही बात कहेंगे। में सुख नहीं, यदि है तो आत्मद्रव्य में है, सुख को जब कभी भी रागद्वेष की निवृत्ति होगी, उस समय नियम प्राप्त करने का साधन है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, | से वह पापों से निवृत्ति लेगा। सम्यक्चारित्र। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं- सही साधन अभी बिजली चली गई तो आप में से कोई नहीं को अपनाओ, तब निराकुल दशा प्राप्त हो सकेगी। यह | आया बैटरी को बदलने, क्यों? क्योंकि आपने निश्चय न्याय का सिद्धान्त है कि जैसा कारण होगा वैसा ही कर लिया है कि यह मेरा काम नहीं है, इसके बारे कार्य होगा। हिंसादिनिवृत्ति रूप जो चारित्र है उस चारित्र | में मुझे ज्ञान नहीं है जिसे ज्ञान है उस मिस्त्री को नियुक्त को अपनायेंगे तभी राग-द्वेष की प्रणाली मिटनेवाली है, कर रखा है। वह व्यक्ति तुरन्त आता है, जिसको ज्ञान अन्यथा तीन काल में भी सम्भव नहीं। राग-द्वेष जो हो | प्राप्त हो गया है। उसी प्रकार वह व्यक्ति झट से चारित्र रहे हैं, वे क्यों हो रहे हैं, जिन पदार्थों से हो रहे हैं | लेने के लिए आ जाता है। राग-द्वेष के साधन को मुझे उन पदार्थों को छोड़ना भी अनिवार्य है, इसी को बोलते | हटाना है और चारित्र को आगे बढ़ाना है। अभी तक हैं बाहरी चारित्र। इस बाहरी चारित्र से ही अन्दर का | ज्ञान था कि आत्मा का हितकारी कोई है तो पंचेन्द्रिय रागद्वेषनिवृत्ति रूप जो आभ्यन्तर चारित्र है वह होने वाला के विषय हैं अब ज्ञात हो गया कि 'आतम के अहित है। दूसरा मार्ग ही नहीं है। यही सही मार्ग है, मोक्ष विषय कषाय'। जब जान लिया कि ये अहितकारी हैं प्राप्त होगा तो इसी से ऐसा अटूट श्रद्धान रहता है उसको। तो फिर उनकी ओर देखें क्यों? नहीं। देखें नहीं, मिटाने इदम् एव च ईदृशं एव च तत्त्वं नान्यत् न च | का प्रयास करें। किसके द्वारा मिट सकते हैं। घर पर अन्यथा। इसका उल्टा भी नहीं है, अन्यथा भी नहीं है, मिट सकते हैं? कहाँ पर मिट सकते हैं? इन्हें किस ऐसा ही है, इसी प्रकार है, यही है। इस प्रकार का प्रगाढ़ | प्रकार मिटा दूं? आकर के कहता है महाराज! मुझे राग श्रद्धानवाला सम्यग्दर्शन और उस राग-द्वेष को मिटाने के द्वेष मिटाना है। आ जाओ बैठ जाओ और किसी के जितने साधन हैं उनमें एक सम्यक् चारित्र भी है जो | साथ बोलना नहीं, क्योंकि बोलने से भी राग उत्पन्न होता कि हिंसादिनिवत्ति रूप होता है। या यँ कहें कि जिन | है। इस प्रकार पाँच पापों से वह जब निवत्ति लेगा, तो साधनों से राग-द्वेष की शांति होती है वह है सम्यक्चारित्र। उसका उपयोग राग-द्वेष की ओर नहीं जायेगा। बाहर से कम से कम शांति आये तो बाद में रागद्वेष सम्बन्ध ही दुःख का कारण की प्रणाली जहाँ से उद्भूत हो रही है, वह भी मिटेगी, आत्मा का उपयोग राग-द्वेष की ओर तब तक अन्यथा तीन काल में नहीं। जाता है जब तक इष्ट व अनिष्ट पदार्थ रहते हैं। पदार्थों पाप से बचो के विमोचन होने के उपरान्त इष्ट रहा, न अनिष्ट। कुछ एक बर्तन में दूध तप रहा है, उबल रहा है तो | भी बंध नहीं है। आपकी दुकान के पड़ोस में दो दुकानें क्या करते हो? अग्नि को बाहर खिसका देते हो। क्या | और हैं। एक की दुकान में फायदा हो गया, एक की होगा इससे? तपन/क्षोभ/उबलन शांत हो जायेगी। दूध | दुकान में हानि हो गई। दोनों की वार्ता को आपने सुना ही क्षुब्ध होनेवाला है, दूध में ही शांति आनेवाली है। पर आपको कुछ नहीं, होता क्यों? क्योंकि उनके हानिफिर भी यह स्पष्ट है कि जब तक अग्नि नीचे से लाभ से हमारी दुकान का कोई हानि-लाभ नहीं है। आचार्य तेज रहेगी तब तक दूध में क्षोभ का अभाव नहीं होगा, कहते हैं- इसी प्रकार जिन पदार्थों से जब तक सम्बन्ध उष्णता का अभाव नहीं होगा। इसी प्रकार जिन पाप | रहता है, तब तक उनके वियोग में दु:ख व संयोग में प्रणालियों से रागद्वेषों का विकास हो रहा है तो राग- | सुख प्रतीत होता है, जिन पदार्थों का त्याग कर दिया द्वेष को छोड़ने के लिए पाँच पापों का आलम्बन छोड़ना | तो फिर कुछ नहीं, जिस पदार्थ से हमारा सम्बन्ध है, होगा। महाराज जी हो जायेगी शांति? अरे भाई यह आचार्य | उसी को लेकर हर्ष-विषाद होता है। सम्यग्दृष्टि को ऐसी समन्तभद्र कह रहे हैं न, जो भगवान् को भी हिलाने | जागृति हो गई। पदार्थ हमारा हो भी नहीं सकता, तो - फरवरी 2008 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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