Book Title: Jinabhashita 2008 02
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 2
________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे सर परिसर ज्यों शीत हो, सर परिसर हो शीत। वरना अध्यातम रहा, सपनों का संगीत ॥ 65 55 रही सम्पदा, आपदा, प्रभु से हमें बचाय। रही आपदा सम्पदा, प्रभु में हमें रचाय॥ 56 कटुक मधुर गुरु वचन भी, भविक-चित्त हुलसाय। तरुण अरुण की किरण भी, सहज कमल विकसाय॥ 57 सत्ता का सातत्य सो, सत्य रहा है तथ्य। सत्ता का आश्रय रहा, शिवपथ में है पथ्य॥ 58 ज्ञेय बने उपयोग ही. ध्येय बने उपयोग। शिव-पथ में उपयोग का, सदा करो उपयोग। 59 योग, भोग, उपयोग में, प्रधान हो उपयोग। शिव-पथ में उपयोग का, सुधी करे उपयोग। 60 रसना रस गुण को कभी, ना चख सकती भ्रात! मधुरादिक पर्याय को, चख पाती हो ज्ञात ॥ 61 तथा नासिका सूंघती, सुगन्ध या दुर्गन्ध। अविनश्वर गुण गन्ध से, होता ना सम्बन्ध ॥ 62 इसी भाँति सब इन्द्रियाँ, ना जानें गुण-शील। इसीलिए उपयोग में, रमते सुधी सलील॥ 63 मूर्तिक इन्द्रिय विषय भी, मूर्तिक हैं पर्याय। तभी सुधी उपयोग का, करते हैं 'स्वाध्याय'॥ खोया जो है अहम में, खोया उसने मोल। खोया जिसने अहम को, खोजा धन अनमोल ॥ 66 प्रतिभा की इच्छा नहीं, आभा मिले अपार। प्रतिभा परदे की प्रथा, आभा सीधी पार ।। 67 वेग बढ़े इस बुद्धि में, नहीं बढ़े आवेग। कष्ट-दायिनी बुद्धि है, जिसमें ना संवेग॥ 68 कल्प काल से चल रहे, विकल्प ये संकल्प। अल्प काल भी मौन लँ. चलता अन्तर्जल्प। 69 पर घर में क्यों घुस रही, निज घर तज यह भीड़। पर नीड़ों में कब घुसा, पंछी तज निज नीड़॥ 70 कहीं कभी भी ना हुआ, नदियों का संघर्ष । मनजों में संघर्ष क्यों? दुर्लभ क्यों है हर्ष? ॥ 71 शास्त्र पठन ना, गुणन से, निज में हम खो जायें। कटि पर ना, पर अंक में, माँ के शिशु सो जायें। 72 दश्य नहीं दर्शन भला, ज्ञेय नहीं है ज्ञान। 'और' नहीं आतम भला, भरा सुधामृत-पान॥ 'सूर्योदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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