Book Title: Jinabhashita 2008 02 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ 6. आचार्यों/आर्यिकाओं/साधुओं को दिये जाने वाले प्रशस्ति/अभिनन्दन/उपाधि पत्र क्या उनके द्वारा ग्रहण करने योग्य हैं? यदि वे योग्य हैं तो फिर क्या परिग्रह का दोष नहीं लगेगा? आज अनेक साधु बड़े हर्षित भाव से अपने लिए विचित्र-विचित्र उपाधियों से युक्त अभिनन्दन पत्र ग्रहण कर रहे हैं और इन उपाधियों को अपने नाम के साथ जोड़ और जुड़वा भी रहे हैं। यदि पत्रसम्पादक उनके नाम के साथ वह उपाधियाँ नहीं लगाते हैं तो बाकायदा फोन / पत्रादि आते हैं कि खाली नाम न छापें बल्कि फलाँ उपाधि अवश्य लगायें। आज साधुओं में एम० ए०, पी-एच० डी०, डी लिट्० उपाधि विभिन्न विश्वविद्यालयों से लेने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसके लिए वे आवेदन पत्र भर रहे हैं, इण्टरव्यू देते हैं, उपाधियाँ ग्रहण करने जाते हैं, जबकि साधु उपधि और उपाधि से रहित निस्संग होता है, ऐसा आगम वचन है, फिर भी इसकी उपेक्षा हो रही है। अध्ययन साधु के लिए आवश्यक है, किन्तु वह समीचीन आत्मज्ञान के लिए है किसी 'डिग्री' के लिए नहीं। कल के दिन इन उपाधिधारी साधुओं में अन्य उपाधिरहित साधुओं से अधिक श्रेष्ठता का भाव / मान भी जन्म ले सकता है अतः इस प्रवृत्ति पर विराम लगना चाहिए। हाँ, वर्तमान में ज्ञान की ललक को देखते हुए यह आवश्यक है कि समाज में कोई ऐसा विद्यालय स्थापित हो, जिसमें साधुगण एक निश्चित समयावधि में ज्ञानार्जन कर सकें। वहाँ सुयोग्य विद्वानों को अध्यापन हेतु रखा जाना चाहिए। वैसे तो गुरु का सान्निध्य ही पर्याप्त है, यदि वे ज्ञान-गुरु हैं। 7. आजकल साधुओं को आचार्यपद देने-लेने की प्रवृत्ति हास्य के स्तर तक बढ़ गयी है। अकेले साधु (वह भी कहीं गुरुद्रोही भी) आचार्य, एलाचार्य, बालाचार्य, ज्ञानाचार्य, उपाध्यायपद धारक बनकर विहार कर रहे हैं, यह सिलसिला रुक भी नहीं रहा है। यहाँ आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं श्वेताम्बर तेरापंथ सम्प्रदाय में आचार्य श्री महाप्रज्ञ का आदर्श उदाहरण है जहाँ सैकड़ों साधु अपने एक ही आचार्य के नेतृत्व में चल रहे हैं और अपनी चर्चा और चर्या से प्रभावित कर रहे हैं। आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा भी यही है। 8. आजकल चर्चा इस बात की हो रही है कि 'शाकाहार प्रवर्तक' कौन? क्योंकि अनेक आचार्य, उपाध्याय अपने नाम के साथ 'शाकाहार प्रवर्तक' उपाधि जोड़ और जुड़वा रहे हैं। यह देखकर लोग प्रश्न करते हैं कि यदि यह 'शाकाहार प्रवर्तक' हैं तो फिर इनसे पहले क्या शाकाहार चलन में नहीं था? हम एक ओर शाकाहार को मानवीय आहारप्रणाली कहते नहीं थकते, तो दूसरी ओर स्वयं को इसका प्रवर्तक कहना क्या समाज को भ्रमित करना नहीं है? मेरा तो विचार है कि सम्पूर्ण मानवीय जीवनदर्शन के व्यवस्थित प्रवर्तक और पुरस्कर्ता तीर्थंकर ऋषभदेव हैं अतः उन्हें ही मानना चाहिए। इसलिए जरूरी है कि ऐसे सभी संतगण 'शाकाहार प्रवर्तक' उपाधि का अविलम्ब त्याग करें जो इसे अपने नाम के साथ जोड़ते-जुड़वाते हैं। दूसरी ओर यह भी विसंगति है कि मात्र शाकाहारी जैन समाज में ही शाकाहार का प्रचार हो रहा है, यहाँ तक कि जैनसमाज के मध्य आयोजित होने वाले सर्वधर्म सम्मेलनों का विषय 'शाकाहार' रख लिया जाता है, जिसमें मांसाहारी अन्य विद्वान् / धर्मगुरु ऐसा कहते देखे / सुने गये है कि जैनी भाइयों के बीच शाकाहार की बात कहनी पड़ रही है, यह सोचकर शर्म आती है और इस तरह एक भली शाकाहारी समाज मांसभक्षण करनेवाली प्रतीत होने लगती है। यदि यहाँ हम विषय- 'अहिंसा-दर्शन' रखें और सप्त व्यसन त्याग की प्रेरणा दें तथा मांसभक्षण की बुराइयों से अवगत करायें, तो शाकाहार के प्रति निष्ठा बढ़ेगी और मांसभक्षण के त्याग के प्रति हमारी संकल्पशक्ति और मजबूत होगी। 9. आजकल स्थान-स्थान पर महामस्तकाभिषेक होने लगे हैं पहले मात्र 12 वर्ष में श्रवणबेलगोला में महामस्तकाभिषेक होता था अब यह धनसंग्रह का माध्यम मान लिया गया है। इसी के साथ एक विकृति और आ गयी है कि अब यह मात्र जल तक सीमित न होकर रंग पर आ गया है। मानों हम भगवान् से होली खेलने जा रहे हों। अभी हाल ही में 'बावनगजा महोत्सव-2008' में सप्तरंगी अभिषेक चर्चित हुआ जब कि वहाँ पूर्व में मात्र जलाभिषेक की परम्परा रही है, जैसा कि विगत् 20 वर्षों से बावनगजा -फरवरी 2008 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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