Book Title: Jinabhashita 2007 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ हिचकिचाहट, अक्खड़पन नहीं था। वे प्रायः कहा करते थे कि क्यों कान फड़फड़ाते हो? श्री मूलचन्द लुहाड़िया (किशनगढ़) उनके पास आते थे। ये जिस तरह अभी जोर से बोलते हैं वैसे ही उस समय भी जोर से बोलते थे। गुरुदेव तब उनसे कहते थे- तुम तो जवान हो, धीरे से बोलो। पंचमकाल में तूफान चारों ओर रहे। ऐसे में दिया (दीपक) बुझने न दें और अपने संस्कार दूसरी पीढ़ी को सौंप दें। संवेग और निर्वेद हमेशा उनके पास बने रहते थे। मोक्षमार्ग में ख्याति, पूजा, लाभ से बचना मुश्किल है। गुरुदक्षिणा से इस बालक को (मुझे) बाँध दिया। एक भी बात कहीं से निकाल लो उनकी परिणति से शिक्षा मिलती थी। उन दो वर्षों में वहाँ पानी की कमी थी। रेत उड़ कर आती थी तो भड़भूजे की आड़ की गर्म रेत जैसी लगती थी। प्रश्न उठता था कि सल्लेखना चार उपवास के साथ जब काया छूटी तब ऐसी काया थी कि ऋद्धिधारी के समान लगती थी। अभिमान की बात उन्हें छूती नहीं थी। सल्लेखना के लिए अपनी उपाधि छोड़कर उन्होंने महान् सल्लेखना को प्राप्त किया। पाँच-छ: वर्ष तक उनके सान्निध्य में जो कुछ प्राप्त किया वह दुर्लभ है। आप लोगों के मुख से सुना कि उनकी समाधि हुए पैंतीस वर्ष हो गए, हमें तो लगता ही नहीं। हम विनती जानते हैं, गिनती नहीं। समय तो समय है। परसमय को छोड़कर स्वसमय में आ जाएं। उनके उपकार का बदला तो हो नहीं सकता किंतु यही भावना है कि जब तक जीवन रहे उनका उपकार याद रहे; क्योंकि मोह से विपथ भी हो सकता है। उन्होंने उपकरण दिये और कहा जा बेटा, अब तुम्हें और कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी। उपकरण चार प्रकार के होते हैं- (१) सूत्र का अध्ययन (२)गुरु का वचन (३) विनय (४) यथाजात दीक्षा। यथाजात दीक्षा देना यह अंतिम उपकार है। विनय को मोक्ष का द्वार कहा है- विणओ मोक्खद्वारं। हमें छोड़ा कहाँ? हमें तो सुरक्षित करके चले गए। वे विश्वस्त होकर चले गए। यह सोचकर कि इसका कुछ नहीं होगा; क्योंकि इसके चार उपकरण हैं। उनके पास भी चार उपकरण थे। यही कारण है कि उन्होंने कितनी भी कठिनाई आ जाए समता नहीं छोड़ी। अंत में समता को धारण कर चले गए। भीषण गर्मी थी; चलने में परेशानी होती थी, साइटिका से पीड़ित थे किंतु उनकी आस्था बड़ी प्रबल थी। उनसे अच्छी सल्लेखना नहीं हो सकती; क्योंकि वह आंतरिक थी। श्री भागचन्द सोनी (अजमेर) उनके पास आते थे। वे महासभा के अध्यक्ष पद से निवृत्त हुए थे। वे परिवार सहित आए। सल्लेखना का १४वाँ दिन चल रहा था। शरीर निष्पन्द था किंतु जागत थे। हमने कह कि दर्शन दे दो तो आँख खोल दी। कितने जागृत थे वे? यदि सूत्र में एक भी गलती हो जाए तो तुरंत उंगली उठ जाती थी। वे प्रकाशन से दूर थे। वे प्रचारक नहीं साधक थे। यह कला उनसे ले लेनी चाहिए। उसके संवेग, निर्वेद की कथा लेनी चाहिए। वे स्वाभिमान को नहीं छोड़ते हुए अभिमान नहीं करते थे। परीक्षा को हमेशा मानते थे। जिस तरह दुकानदार ग्राहक देखकर भाव बदल लेते हैं वैसे वे नहीं थे। एक ही भाव था उनके पास। उनकी भाव प्रणाली एक थी। यह देखकर हृदय गद्गद् होता था। मैं अपने लिए गौरवशाली मानता हूँ कि वे हमें मिले। एक बार मैंने प्रश्न किया कि हमें कैसा करना? उन्होंने उत्तर दिया जैसे किया, वैसा करना। उनके वचन हमें पूर्ण करना हैं। लें तो दें भी। ले लिया और नहीं दिया, यह ठीक नहीं; इसलिए उन्होंने दिया (दीपक) दे दिया। हमें भी उस क्षण की तलाश है जिस दिन एकत्व विभक्त हो अकेला बनना है। आचार्य पद कर्त्तव्य निष्ठा के लिए है। वैसे हम प्रतिदिन "णमो लोए सव्व साहूणं" कहते हैं। इस बार गुरुदेव की सल्लेखना के विषय में विशेष दृष्टि गई। इस बात का श्रेय श्रुत आराधना शिविर को ही जाता है। तरणि ज्ञानसागर गुरो तारो मुझे ऋषीश। करुणाकर करुणा करो, कर से दो आशीष ॥ डॉ. सुरेन्द्रकुमार जैन 'भारती' - अगस्त 2007 जिनभाषित 3 www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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