Book Title: Jinabhashita 2007 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 7
________________ अनुभूति के लिए किया। जब ज्ञान के माध्यम से उस आत्मा। सभी संसारी जीवों की जो अनुभूति है वह सामान्य की अनुभूति की ओर कदम बढ़ जाते हैं तो वही मोक्षमार्ग | रूप से रागानुभूति है। उस अनुभूति की हम बात नहीं कर बन जाता है। अन्यथा उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं रहता।| रहे किंतु मोक्षमार्ग में होने वाली वीतराग अनुभूति की बात अनुभूति भी रागानुरूप हो रही है या वीतरागानुरूप हो रही | यहाँ है। आत्मा के विकास के लिए स्वसंवेदन की है यह भी देखना आवश्यक है क्योंकि परिणाम उसी के | आवश्यकता है पर वीतराग स्वसंवेदन की है। धीरे-धीरे अनुरूप मिलने वाला है। मोक्षमार्ग की अनुभति, वीतरागमार्ग | अपनी दृष्टि को, जिन-जिन पदार्थों को लेकर राग-द्वेष की अनुभूति तो तभी होगी जब जैसा हमने उस मार्ग के | उत्पन्न हो रहे हैं उन पदार्थों से हटाते चले जायें और दृष्टि बारे में सुना, देखा, जाना है, श्रद्धान और ज्ञान किया है | को 'स्व' की ओर मोड़ते चले जायें तो वीतरागता आने उसको वैसा ही अनुभव में लाने का पुरुषार्थ करेंगे। जानने | में देर नहीं लगेगी। जिन पदार्थों के सम्पर्क से हमारा मन के लिए उतना पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता जितना कि | राग में जाता है हमारा ज्ञान राग का अनुभव करना प्रारंभ अनुभव करने के लिए आवश्यक है। अनुभूति बिना पुरुषार्थ | कर देता है उन पदार्थों से अलगाव रखें और ज्ञान की शुद्धि के नहीं होती। करना प्रारम्भ कर दें। धीरे-धीरे 'पर' से हटने के कारण बैठे-बैठे जाना जा सकता है किंतु बैठे-बैठे चला आप अपनी ओर आ जायेंगे। ऐसा कोई शार्टकट नहीं है नहीं जा सकता। चलते समय देखा भी जाता है और जाना जिसके माध्यम से 'पर' के साथ संबंध रखते हुए भी हम भी जाता है। मैं सदैव कहता हूँ देखभाल चलना। जीवन | आत्मानुभूति तक पहुँच जायें। रास्ता एक ही है दिशा में जब भी अनुभूति होती है वह इन तीनों की | बदलनी होगी। राग की सामग्री से उसे हटाकर वीतरागता (देख+भाल+चलना-दर्शन+ज्ञान+चारित्र) की समष्टि के | की ओर आना होगा। साथ ही होती है। रागानुभव के साथ ज्ञान कितना भी हो एक सेठजी थे। भगवान् के अनन्य भक्त। एक दिन उससे शान्ति, सुख, आनंद जो मिलना चाहिये वह नहीं | वे गजानन-गणेश की प्रतिमा लेकर आये और खूब धूमधाम मिल पाता है। 'सो इंद्र नाग नरेन्द्र वा अहमिंद्र के नाहीं | से पूजा करना प्रारम्भ कर दिया। गजानन को मोदक बहुत कह्यो'- वीतरागता के साथ जो आनंद है वह चाहे इंद्र | प्रिय होते हैं इसलिए एक थाली में मोदक सजाकर नैवेद्य हो, नागेंद्र हो, नरेंद्र अर्थात् चक्रवर्ती हो या अहमिंद्र भी | के रूप में रखे। सेठजी प्रतिमा के सामने प्रणिपात हुए माला क्यों न हो उसे प्राप्त नहीं हो सकता। क्योंकि ये सारे के | फेरी, उसकी आरती की फिर वहीं बैठे-बैठे उस प्रतिमा सारे असंयमी हैं। संयम के साथ वीतरागता के साथ जो | को निहारने लगे। उसी बीच एक चूहा आया और उस आत्मा की अनुभूति है वह एक प्रकार से शुद्ध परिणति | थाली में से एक मोदक लेकर चला गया। सेठजी के मन में विचार आया कि देखो, भगवान् का स्वरूप बताते हुए __ जो व्यक्ति भगवान् बनना चाहता है उसे सर्वप्रथम कहा है कि जो सबसे बड़ा है वह भगवान् है और वह भगवान् के दर्शन करने होंगे, उसके माध्यम से बोध प्राप्त सर्वशक्तिमान है। ये गजानन तो भगवान् नहीं दिखते हैं। करना होगा फिर उसे स्वयं के अनुभव में लाने का प्रयास | यदि ये भगवान् होते तो इस चूहे का अवश्य ही प्रतिकार करना होगा। मैं भगवान् बन सकता हूँ- इस प्रकार का करते। एक अदना सा चूहा इनका मोदक उठा ले गया जो विचार उठेगा वह भगवान् को देखे बिना नहीं उठेगा | और ये कुछ न बोले। उसे हटाने की सामर्थ्य ही नहीं है इसलिए पहले भगवान् का दर्शन आवश्यक है। भगवान् | इनमें । हो सकता है कि चूहा, भगवान् से बड़ा हो मेरे समझने के दर्शन से भावना प्रबल हो जाती है कि मुझे भगवान् | में कहीं भूल हो गयी है। और उस दिन से सेठजी ने चूहे बनना है। पर इतने मात्र से कोई भगवान् नहीं बनता। आगे की पूजा प्रारम्भ कर दी। की प्रक्रिया भी अपनानी पड़ेगी। आँखों से देखा जाता है | दो तीन दिन के उपरांत एक दिन चूहा जब बाहर पाया नहीं जाता। पाने के लिए तो स्वयं वीतराग मार्ग पर | आया तो उसे बिल्ली पकड़ ले गई ओ हो! अब अनुभव चलना होगा, संयम धारण करना होगा, उसके उपरांत अपने | होता जा रहा है मुझे, सेठ जी ने सोचा मैं अब अनुभव आप में लीनता आयेगी। अनुभूति तभी होगी। तभी परमात्म | की ओर बढ़ता जा रहा हूँ। जैसे-जैसे सेठ जी का अनुभव स्वरूप की उपलब्धि होगी। बढ़ता गया उनका आराध्य भी बदलता गया। अब बिल्ली है। अगस्त 2007 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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