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प्रस्तावों की भावना समझें
डॉ. शीतलचन्द्र जैन
उदयपुर में ४ अक्टूबर २००६ को पूज्य मुनि पुङ्गव । दिग्विजय के अगले अङ्कों में चुनौती चेतावनी देना प्रारम्भ सुधासागर जी महाराज के सान्निध्य में भगवती आराधना कर दी जो आप जैसे महानुभाव के लिये गरिमापूर्ण नहीं जैसे महान् ग्रन्थाधिराज पर अ० भा० विद्वत्संगोष्ठी आयोजित है। थी। वस्तुतः पूज्य मुनि श्री द्वारा संगोष्ठियों में चारों अनुयोगों का शोधपूर्ण मार्ग-दर्शन प्राप्त होता है, वह महत्त्वपूर्ण एवं प्रामाणिक होता है। यही कारण है कि पूज्य मुनि श्री के सान्निध्य में आयोजित संगोष्ठियों में जाने के लिये विद्वान् वर्षभर से प्रतीक्षा करते हैं, और इन संगोष्ठियों में विषय का परिमार्जन तो होता ही है। साथ में अ०भा० स्तर के जैन-अजैन चिन्तनशील विद्वान् एवं शोधार्थी उपस्थित होते हैं। संगोष्ठियों का प्रतिफल है कि शास्त्रिपरिषद् एवं विद्वत्परिषद् का एक मंच पर आना। जब दोनों परिषदों का संयुक्त अधिवेशन हुआ तो कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा होना स्वाभाविक है। परिणाम स्वरूप कुछ सैद्धान्तिक एवं सामाजिक प्रस्ताव समाज के सामने रखे गये जिनका कतिपय पूर्वाग्रह ग्रसित विद्वानों को छोड़कर सभी ने स्वागत एवं सराहना की ।
24 अगस्त 2007 जिनभाषित
संयुक्त अधिवेशन में जो भी प्रस्ताव पारित हुए वे श्रमण संस्कृति की वैदिक संस्कृति से पृथक् पहिचान बनाये रखने के लिये हैं। अन्यथा वर्तमान में जो क्रियायें प्रचलित हो गयीं हैं उनसे दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। हम देखते हैं कि कई मुनिराजों, प्रतिष्ठाचार्यों एवं श्रावकों द्वारा वैदिक संस्कृति के अनुरूप क्रियायें करने की कृत- कारित - अनुमोदनायें हो रहीं हैं। जैसे कुछ उदाहरण इसप्रकार हैं।
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(१) वैदिक संस्कृति में सरागी देव देवियों की पूजन विधान, अनुष्ठान प्रचलित हैं और प्रायः रात्रि में होते हैं उसी प्रकार हमारे यहाँ भी रात्रि में शासन देवी, देवताओं की पूजन, विधान, अनुष्ठान मुनिराज स्वयं बैठकर करवाने की प्रेरणा देते हैं।
अधिवेशन में जो प्रस्ताव रखे गये उन पर गम्भीरता से विचार विमर्श हुआ और सर्वसम्मति से पारित हुये । इन प्रस्तावों पर पूज्य मुनि श्री का कहीं भी आग्रह - दुराग्रह नहीं था बल्कि प्रथम प्रस्ताव पर पूज्य मुनि श्री का कहना था कि समाज के कुछ विद्वानों एवं श्रावकों को आपत्ति हो सकती है क्योंकि समाज में स्वाध्याय की कमी है। मुझे यह बिल्कुल भी आशा नहीं थी कि पं० हेमन्त काला जी जैसे महानुभाव वीतरागी जैनधर्म की भावना को नहीं समझ पायेंगे। आश्चर्य तो तब हुआ जब जनवरी २००७ में दिग्विजय का अङ्क पूज्य मुनि पुङ्गव सुधासागर जी महाराज की समालोचना में निकाल दिया जबकि संयुक्त अधिवेशन के प्रस्तावों से पूज्य मुनि श्री को कुछ लेना देना नहीं था । ये प्रस्ताव विद्वानों की शीर्षस्थ दो संस्थाओं द्वारा पारित हैं। उन प्रस्तावों के सम्बन्ध में मुझे पं० भरत जी काला का पत्र मिला तो मैंने तुरन्त बिना किसी दुराग्रह के दिनांक १९.२.०७ को पत्र लिखा कि यदि आपको किसी भी प्रकार की भ्रान्ति है तो बैठकर विचार करें, समाज को व्यर्थ में (७) विश्व शान्ति महायज्ञ वैदिक संस्कृति की देन पंथवाद के चक्कर में डालकर भ्रमित न करें परन्तु श्री है। हमारे यहाँ भी यही अवधारणा प्रारम्भ हो गयी । काला जी ने हमारे पत्र पर ध्यान ही नहीं दिया और (८) वैदिक विद्वान् अनुष्ठान के बाद रक्षासूत्र
(५) वैदिक संस्कृति में रामायण का अखण्डपाठ और रात्रि में जागरण के साथ में जलपान, भोजन आदि होता । वैसा ही श्रमण संस्कृति में भी प्रवेश हो रहा 1 (६) वैदिक संस्कृति में १००८ दीपकों द्वारा आरती सवामन लड्डू आदि चढ़ाना प्रचलित है। उसी तर्ज पर अपने यहाँ भी प्रारम्भ गया।
(२) अनुष्ठान के पश्चात् जैसा वैदिक संस्कृति में प्रसाद वितरण होता है वैसा ही जैन अनुष्ठानों में होने लगा । इतना ही नहीं, कुछ मुनिराजों की आहारचर्या के बाद बचे हुये फल वगैरह प्रसाद में श्रावक बाटने लगे। मैंने शिखर जी में देखा कि आरती के बाद प्रसाद बाँटा जा रहा था।
(३) वैदिक परम्परा में बाला जी के दर्शन के बाद सिन्दूर का टीका लगाते हैं । यहाँ पर भी जैनमंदिरों में क्षेत्रपाल जी का सिन्दूर लेकर टीका लगानें लगे हैं ।
(४) वैदिक परम्परा में नवरात्रि में विशेष अनुष्ठान होते हैं। श्रमण संस्कृति में भी कतिपय महानुभावों की प्रेरणा से गेरूवा वस्त्र पहिनकर अनुष्ठान प्रारम्भ हो गये हैं ।
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