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कषाय और योग ही संक्लेश परिणाम हैं और क्योंकि वे । है । शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचित्व के आर्त और रौद्र ध्यानरूप परिणामों के कारण हैं, इसीलिए उन्हें संक्लेश का कारण कहा है।
मिथ्यासंकल्प को छोड़ देना अथवा अर्हन्त के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में 'यह अयुक्त है, घोर कष्ट है, यह सब नहीं धवला भाग ४ (पृष्ठ १४१ ) में वीरसेन स्वामी बनता' आदि प्रकार की अशुभ भावनाओं से चित्तविचिकित्सा नहीं करना निर्विचिकित्सा अङ्ग है। बहुत प्रकार के मिथ्यानयवादियों के दर्शनों में तत्त्वबुद्धि और युक्तियुक्तता को छोड़कर मोहरहित होना अमूढदृष्टिता है । उत्तमक्षा धर्मभावनाओं से आत्मा की धर्मवृद्धि करना उपबृंहण है । कषायोदय आदि से धर्मभ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होने पर भी अपने धर्म से परिच्युत नहीं होना उसका बराबर पालन करना स्थितिकरण है। जिनप्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना वात्सल्य है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशमान करना प्रभावना है।
ने लिखा है
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" का नाम विसोही? जेसुपरिणामेसु समुप्पण्णेसु कसायाणं हाणि होदि। थिर, सुह, सुभग, साद सुस्सरादीणं सुहपयडीणं बंध च ते परिणामा विसोहीणा । "
अर्थात् जीव के जिन परिणामों के होने पर कषायों की हानि होती है स्थिर, शुभ, सुभग, साता और सुस्वर आदि शुभ प्रकृतियों का बन्ध होता है, उन परिणामों का नाम विशुद्धि है ।
सम्यग्दर्शन सहित विशुद्धि का नाम दर्शनविशुद्धि है। यह उसी के होती है, जिसकी जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग में रुचि हो ।
दर्शनविशुद्धि के आठ अङ्ग हैं- इहलोक, परलोक, व्याधि, मरण, अगुप्ति, अरक्षण और आकस्मिक इन सात भयों से मुक्त रहना अथवा जिनोपदिष्ट तत्त्व में 'यह है या नहीं' इस प्रकार की शङ्का नहीं करना निःशङ्कित अङ्ग है। धर्म को धारण करके इस लोक और परलोक में विषयोपभोग की आकांक्षा नहीं करना और अन्य मिथ्यादृष्टि सम्बन्धी आकांक्षाओं का निरास करना नि:कांक्षित अङ्ग
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इस प्रकार दर्शनविशुद्धि के योग से अपने श्रद्धान को दृढ़ करना अदर्शन परीषह-जय है। मुनि को इसे अवश्य ही धारण करना चाहिए।
मैं चिरकाल घोर तप कीना अजहूं ऋद्धि अतिशय नहीं जागे । तप बल सिद्धि होय सब सुनियत सो कुछ बात झूठ सी लागे । यों कदापि चित में नहिं चिन्तित समकित शुद्ध शांति रस पागे । सोई साधु अदर्शन विजई ताके दर्शन से अघ भागे ॥
'वात्सल्यरत्नाकर' (तृतीय खण्ड) से साभार
आयुष्मान् भरत एवं आयुष्मती सुभद्रा का परिणय संपन्न
रजवांस (सागर,म.प्र.) । जैन जगत के लब्धप्रतिष्ठि युगल विद्वान् भ्राताद्वय पं. सनतकुमार, विनोद कुमार जैन के नाम से विख्यात प्रतिष्ठाचार्य पं. श्री विनोद कुमार जैन के यशस्वी सुपुत्र आयुष्मान् भरत कुमार शास्त्री का शुभ विवाह दिनांक १.०७.२००७ की शुभबेला में सागर निवासी सिंघई श्री सुभाष जैन की सुपुत्री सौ. कां. सुभद्रा / रेखा जैन के साथ इष्ट मित्रों, रिश्तेदारों, शुभ चिंतकों व विद्वद्वर्ग के मध्य गरिमापूर्ण समारोह के साथ संपन्न हुआ ।
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सिंघई अरिहंत जैन मुरैना
अगस्त 2007 जिनभाषित 23
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