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पुरुष सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीण मदशक्तिवाले कोदों के समान अर्द्धशुद्ध स्वरस वाला होने पर तदुभय कहा जाता है। इसी का दूसरा नाम सम्यग्मिथ्यात्व है। इसके उदय से अर्द्धशुद्ध मदशक्तिवाले कोदों और ओदन से प्राप्त हुए मिश्र परिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है।
दर्शनमोहरूप जीव की अवस्था का वर्णन टोडरमल
जी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से किया । उनके कथनानुसार दर्शनमोह के उदय से जो मिथ्यात्वभाव होता है, उससे यह जीव अन्यथा प्रतीति रूप अतत्त्व श्रद्धान करता है। जैसा है वैसा तो नहीं मानता और जैसा नहीं है, वैसा मानता है। अमूर्तिक प्रदेशों का पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादिगुणों का धारी अनादिनिधन वस्तु आप है और मूर्तिक पुद्गल द्रव्यों का पिण्ड, प्रसिद्ध ज्ञानादिकों से रहित, जिनका नवीन संयोग हुआ, ऐसे पुद्गलादि पर हैं, इनके संयोग रूप नाना प्रकार की मनुष्य तिर्यञ्चादिक पर्यायें होतीं हैं उन पर्यायों में अहंबुद्धि धारण करता है, स्व-पर का भेद नहीं कर सकता। जो पर्याय प्राप्त करे, उस ही को आप रूप मानता है। उस पर्याय में जो ज्ञानादिक हैं वे तो अपने गुण हैं और रागादिक हैं वे अपने कर्मनिमित्त से औपाधिक भाव हुए हैं तथा वर्णादिक हैं वे शरीरादिक पुद्गल के गुण हैं और शरीरादिक में वर्णादिकों का तथा परमाणुओं का नाना प्रकार पलटना होता है, वह पुद्गल की अवस्था है । वह इन सबको ही अपना स्वरूप मानता है, स्वभाव का विवेक नहीं हो पाता। मनुष्यादि पर्यायों में धन, कुटुम्ब आदि का सम्बन्ध होता है, वे प्रत्यक्ष अपने से भिन्न हैं तथा वे अपने अधीन नहीं परिणमित होते, तथापि उनमें ममकार करता है कि ये मेरे हैं, वास्तव में वे किसी प्रकार अपने नहीं होते है । (मोही जीव) मनुष्यादि पर्यायों में कदाचित् देवादि की या तत्त्वों की अन्यथा स्वरूप जो कल्पित क्रिया है, उसकी प्रतीति तो करता है, परन्तु यथार्थ स्वरूप जैसा है, वैसी प्रतीति नहीं करता । इसप्रकार दर्शनमोह के उदय से जीव को अतत्त्व श्रद्धानरूप मिथ्याभाव होता है। जहाँ तीव्र उदय होता है, वहाँ सत्यश्रद्धान से बहुत विपरीत श्रद्धान होता है। जब मन्द उदय होता है तो सत्यश्रद्धान से थोड़ा विपरीत श्रद्धान होता है।
आचार्य पूज्यपाद ने मोह की परिणति के विषय में
कहा है
मोहेन संवृतं ज्ञानं स्वभावं लभते न हि । मत्तः पुमान् पदार्थानां यथा मदनक्रोद्रवैः ॥
22 अगस्त 2007 जिनभाषित
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(इष्टोपदेश/७)
अर्थात् मोह से आवृत ज्ञानवाला व्यक्ति स्वभाव को प्राप्त नहीं करता है, जिस प्रकार मदनकोद्रवों से मत्त हुआ व्यक्ति पदार्थों के स्वभाव को नहीं जान पाता 1
दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय या क्षयोपशम होने पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने से, जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसा भव्य जीव राग और द्वेष की निवृत्ति के लिए सम्यक्चारित्र को धारण करता है। जैसा कि आचार्य समन्तभद्र ने कहा है
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ४७ ) सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा उत्कृष्टपने को प्राप्त होता है, इसलिए सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग में खेवटिया के समान कहा जाता है।
जिसप्रकार मूलकारण बीज के न होने पर वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फलोत्पत्ति नहीं होती, उसीप्रकार मोक्षमार्ग में मूलकारण सम्यग्दर्शन के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की फलोत्पत्ति नहीं हो सकती है
ऊपर सम्यक्त्व के उल्लेख किया गया है। वे
विद्यावृत्तस्य सम्भूति-स्थिति- वृद्धि - फलोदयः । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे बीजाभावे तरोरिव ॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार - ३२) मूलों में शङ्कादिक दोषों का पाँच हैं- १. शङ्का, २. कांक्षा, ३. विचिकित्सा, ४. अन्यदृष्टिसंस्तव और ५. अन्यदृष्टिप्रशंसा । निःशङ्कितत्व आदि के प्रतिपक्षी शङ्का आदि हैं। मिथ्यादृष्टि के ज्ञान - चारित्र गुणों का मन से अभिनन्दन करना प्रशंसा है तथा वचन से विद्यमान अविद्यमान गुणों का कथन संस्तव है ।
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अदर्शन परीषह सहन करने हेतु दर्शनविशुद्धि भावना का योग आवश्यक । अकलङ्कदेव ने कहा है
" आर्त्तरौद्रध्यानपरिणामसंक्लेशस्तदभावो विशुद्धिरात्मस्वात्मन्यस्थानम्" अर्थात् आर्तध्यान और रौद्रध्यान परिणामों को संक्लेश कहते हैं और उसके अभाव को अर्थात् धर्मध्यान, शुक्लध्यान रूप परिणामों को विशुद्धि कहते हैं । उस विशुद्धि के होने पर ही आत्मा में स्थिरता होती है। आचार्य विद्यानन्द ने कहा है
"मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतव । त एव संक्लेश परिणाम इति न विरुध्यते तेषामार्त्तरौद्रध्यानपरिणाम - कारणत्वेन संक्लेशाङ्गत्ववचनात् । "
अर्थात् बन्ध के कारण मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद,
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