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खुलवाने में दक्षिणा लेते हैं, हमारे यहाँ भी कतिपय | अपितु समाज का पर्यावरण दूषित करना चाहते हैं। इसी प्रतिष्ठाचार्यों ने दक्षिणा लेना प्रारम्भ कर दिया है। | अङ्क में माननीय सुदर्शन कासलीवाल जी ने अनुशासित
(९) इसप्रकार सन्तोषीमाता व्रत के तर्ज पर शुक्रवार चेतावनी प्रकाशित की है। इस सम्बन्ध में निवेदन है कि को व्रत प्रारम्भ हुए हैं।
आप इन प्रस्तावों की भावना को समझें और पृ. ८० पर (१०) मुनिराजों द्वारा घर-घर जाकर मंगलकलश | प्रकाशित मेरे पत्र के अभिप्राय को भी ध्यान में रखें। आदि की स्थापनायें कराना।
आदरणीय प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जी ने जो लिखा है कि (११) वैदिक संस्कृति के साधु जिस प्रकार नारियल 'उदयपुर में जो प्रस्ताव पारित हुए हैं वे केवल एक ही अंगूठी, माला, यंत्र आदि मंत्रित करके देते हैं। वैसे ही | साधु की प्रसन्नता को ध्यान में रखकर पारित किये गये अपने यहाँ भी प्रारम्भ हो गया।
हैं।' 'उक्त बात यथार्थ जानकारी के अभाव में ही लिखी (१२) कतिपय साधु संघों में मोबाइल संस्कृति ने | गयी है प्रस्ताव पारित करने की भावना पूर्व में लिख चुका सभी मर्यादायें तोड़ दी हैं।
हूँ। मैं तीनों अङ्को का उत्तर तब लिखूगा जब मेरे १९.२.०७ इस प्रकार उपरोक्त कतिपय उदाहरण दिये गये हैं | के पत्र का उत्तर मिल जायेंगा।' यदि लिखे जाये तो श्रमण संस्कृति में बहुत उदाहरण हैं। अभी २५ मई ०७ के जैन गजट में बाबूलाल सेठिया जिनमें विसंगतियाँ हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है। | नैनवा का लेख भी प्रकाशित हुआ है। इससे समाज का अन्यथा दोनों संस्कृतियों में भेद नहीं रह जायेगा। एक स्थान | पर्यावरण ही दूषित होगा। पर देखा गया कि एक ही थाली में जिनेन्द्र भगवान् और विद्वानों का ध्यान रचनात्मक कार्यों में जाना चाहिये शासन देवी का अभिषेक हो रहा है। बगल में खड़ा हुआ | आज भारत के विश्वविद्यालयों में जैनविभागों एवं स्थापित युवक पूछ रहा है कि अपने जैनधर्म में भी राधा-कृष्ण | जैनचेयर्स को समाप्त करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। जैसा व्यवहार होता है क्या? उसको समय नहीं था मुझे | विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकें उपलब्ध भी समय नहीं था। अपने-अपने स्थान चल दिये। हम | नहीं हैं जबकि विभिन्न साधु संस्थाओं द्वारा इतना साहित्य सबको मिलकर विचारना है कि आगे आने वाली पीढ़ी | प्रकाशित हो रहा है कि पढ़ने वाले नहीं हैं। पंच कल्याणक को वीतराग पोषक संस्कृति का उपासक बनाना है या सरागी | असीमित हो रहे जबकि जैन विधा पर सार्थक संगोष्ठियाँ संस्कति का पोषक। आज की पीढी पन्थों को नहीं जानना विश्वविद्यालयों में बिल्कुल ही नहीं हो रही हैं। प्रतिमायें चाहेगी अपित अपने धर्म, दर्शन एवं संस्कृति का स्वरूप | इतनी तैयार हो रहीं हैं कि जितने भक्त तैयार नहीं हो रहे। जानना चाहेगी। हमें पन्थों के नाम लेना बन्द कर देना मेरा विनम्र अनुरोध है कि जो प्रस्ताव पारित हुए चाहिए। यह कतिपय पण्डितों की देन है,न कि अनादि। | हैं वे किसी की आस्था पर चोट पहुँचाने के लिये नहीं
दिग्विजय पत्रिका का मार्च-अप्रैल का अङ्क पढ़कर | हैं अपितु वीतराग पोषक श्रमण संस्कृति की पहिचान आगे मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि दोनों सम्पादक महोदय (प० | आने वाली पीढ़ी में बनी रहे, इसका मूल उद्देश्य है। भरत-हेमन्त जी) विषयों पर बैठकर चर्चा नहीं करना चाहते |
अध्यक्ष अ.भा.दि.जैन विद्वत्परिषद, जयपुर
प्रमादी त्यजति ग्रन्थं बाह्यं मुक्त्वापि नान्तरम्। हित्वापि कञ्चुकं सर्पो गरलं न हि मुञ्चते॥८/३१॥
(अमितगति : योगसारप्राभृत) प्रमादी पुरुष बाह्य परिग्रह त्यागकर भी अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग नहीं करता। सर्प केंचुली छोड़ देता है, किन्तु विष नहीं छोड़ता।
किं वस्त्रत्यजनेन भो मुनिरसावेतावता जायते। क्ष्वेडेन च्युतपन्नगो गतविषः किं जातवान् भूतले॥
माल्लिषेणाचार्यकृत 'सज्जनचित्तवल्लभ' कोई पुरुष वस्त्र त्यागने मात्र से मुनि हो जाता है? क्या साँप केवल केंचुली त्याग देने से निर्विष हो जाता है?
- अगस्त 2007 जिनभाषित 25
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