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तो अनंत संसार और बढ़ता ही जायेगा, सम्यक्त्व कैसे हो । मोक्ष प्राप्त हो जाता है। सकेगा? हमें इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को व्यर्थ गंवाना नहीं प्रश्नकर्ता- डॉ. राजेन्द्र कुमार जैन देहली चाहिये। हमें शास्त्र अध्ययन पूर्वक सच क्या है और झूठ जिज्ञासा- क्या बुद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतमबुद्ध, पूर्व क्या है? हेय क्या है और उपादेय क्या है इसका ज्ञानकर | में दिगम्बर साधु थे? प्रमाण देकर समझाइये। सत्यमार्ग का आश्रय लेना चाहिये। निष्कर्ष यह है कि जो समाधान- शाक्यवंशी कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन भी साधु या आचार्य, क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि की स्थापना | के राजकुमार महात्मा बुद्ध, भगवान् महावीर के समकालीन या पूजा का उपदेश देते हैं, यह उनका अपना मत है। थे। प्रोफेसर भंडारकर ने (जे.एच.एम. इलाहाबाद- फरवरी आगम में इसका सर्वथा निषेध है। हमें अपने सम्यक्त्व | १९२५ के पृष्ठ २५ पर) कहा है कि महात्मा बुद्ध कुछ की रक्षा के लिये ऐसे कार्यों से दूर रहना चाहिये। समय तक जैनमुनि रहे। महात्मा बुद्ध की चर्या कुछ समय
जिज्ञासा- क्या दीक्षा लेकर परम ध्यान के प्रताप | तक जैनमुनि के रूप में थी। बौद्ध ग्रंथ मज्झिम निकाय से अंतर्मुहूर्त में ही निर्वाण प्राप्ति संभव है?
पृष्ठ ४८-४९ में महात्मा बुद्ध लिखते हैं वहाँ सारिपुत्र ! समाधान- पू. आ. विद्यासागर जी महाराज अपने | मेरी यह तपस्विता थी- अचेलक (नग्न) था। मुक्ताचार, प्रवचनों में बहुतबार श्री धवला जी के अनुसार उपदेश देते | हस्तावलेटनन (हथचट्टा) नष्ट हिमादन्तिक (बुलाई भिक्षा हैं कि एक जीव को मोक्षप्राप्ति से पूर्व द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, का त्यागी) न तिष्ठ भदन्तिक (ठहरिये, कहकर दी गई पंचम, तथा ग्यारहवें गुणस्थान में जाना आवश्यक नहीं है। भिक्षा को) न अपने उद्देश्य से किये गये का और न निमंत्रण कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव मोक्ष जाने से अंतर्मुहूर्त | को खाता था। --- न मछली, न मांस, न शराब पीता पूर्व ही प्रथम गुणस्थान से सीधा सप्तम में आकर, हजारों बार (पीता) था। --- शाकाहारी था। --- केश दाढ़ी नोंचने छठे- सातवे गुणस्थान में अवरोहण-आरोहण करके, अपने | वाला था। इससे स्पष्ट है कि महात्माबुद्ध जैनधर्म ग्रहण वेदक सम्यक्त्व को क्षायिक बनाकर, क्षपक श्रेणी माड़कर | करके जैनसाधु हो गये थे। श्री भंडारकर ने आगे पृष्ठ २६ अंतर्मुहुर्त मात्र काल में मोक्ष प्राप्त कर सकता है। पर कहा है, महात्माबुद्ध वास्तव में भ. महावीर के उपदेशों १. श्री भगवती आराधना में भी इस प्रकार कहा | से प्रभावित होकर जैनसाधु बन गये थे, परन्तु जैनसाधु की
कठिन चर्या पालने में असमर्थ होने पर उन्होंने मध्यम मार्ग सोलस तित्थयराणं, तित्थुप्पणस्स पढ़म दिवसम्मि। चलाया। यही मध्यम मार्ग 'बौद्धधर्म' कहलाया। सामण्णणाण सिद्धि, भिण्णमुहूत्तेण संपण्णा ।।२०२२ ॥ बौद्धग्रंथ मझिमनिकाय पृष्ठ ९२-९३ पर और भी
अर्थ- भगवान् ऋषभदेव से शांतिनाथ तीर्थंकर तक कहा है- मैंने निर्ग्रन्थों से पछा ऐसी घोर तपस्या की वेदना सोलह तीर्थंकरों के तीर्थ की उत्पत्ति होने के प्रथम दिन
को क्यों सहन कर रहे हो? तो उन्होंने कहा 'निर्ग्रन्थ ज्ञात ही बहुत से साधु दीक्षा लेकर एक अंतर्मुहूर्त में केवल पुत्र महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। उन्होंने बताया है कि ज्ञान को प्राप्त कर मुक्त हुये।
कठोर तप करने से कर्म कटकर दु:ख क्षय होता है।' इस २. श्री परमात्म प्रकाश में भी कहा है- पर बुद्ध कहते हैं "यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत अप्पाझायहिणिम्मलउ, किं वहुएँ अण्णेण।
होता है और हमारे मन को ठीक जचता है।" महात्मा जो झायंतह परमपउ,लम्भह एक्क-खणेण ॥१-९७॥| बुद्ध पर भ. महावीर का बहुत प्रभाव था इसी का फल
अर्थ- अब और अधिक कहने से क्या? एक निर्मल है कि उन्होंने बौद्धग्रंथ 'धम्मपद' के पृष्ठ ३३१ पर भ. आत्मा का ध्यान करो, जिससे ध्यान करनेवाले को एकक्षण | महावीर की सर्वज्ञता को स्वीकार किया और उनकी प्रशंसा में परमपद की प्राप्ति हो जाती है।
की प्रो. सिल ने (जे.एच.एम. नवम्बर १९२६ पृष्ठ २) कहा इसकी टीका में ब्रह्मदेव सूरि लिखते हैं- है कि उन्होंने वास्तव में बहुत से जैनसिद्धांतों को स्वीकार
"समस्त शुभाशुभ संकल्प विकल्प रहितेन स्वशुद्धात्म | | किया। डॉ. हर्मन जैकोवी ने दि. जैन सूरत पत्र के पृष्ठ तत्त्व ध्यायेनान्तर्मुहूर्तेन मोक्षो लभ्यते।"
४८ पर लिखा है कि जैनदर्शन, बौद्धमत की माता है। श्री अर्थ- समस्त शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प रहित | बालगंगाधर तिलक ने जैनधर्म महत्त्व भाग २ (सूरत) पृष्ठ निज शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान करने से अंतर्मुहूर्त में | ८३ पर महात्मा बुद्ध को भगवान् महावीर का शिष्य स्वीकार
28 अगस्त 2007 जिनभाषित
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