Book Title: Jinabhashita 2007 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 10
________________ चेतन का नाम है और शुद्ध परिणति का नाम है पर की उपलब्धि वीतरागता के द्वारा ही संभव है। बात नहीं स्व की बात है । आप कह सकते हैं कि महाराज आप बार-बार इन्हीं बातों की पुनरावृत्ति करते जा रहे हैं तो भइया! आप आत्मा की बात सुनना चाहते हैं या दूसरी बातें सुनना चाहते हैं। दूसरी संसार की बातें तो आप लोगों को मालूम ही हैं। आत्मा की बात अनूठी है। उसे अभी तक नहीं सुना। उसमें रुचि नहीं जागी, उसी रुचि को तो जगाना है। जिस ओर रुचि है उसको बताने की आवश्यकता नहीं है। धर्मोपदेश विषयों में रुचि जगाने के लिए नहीं है आत्मा की रुचि जगाने के लिए धर्मोपदेश है। एक बच्चे ने अपनी माँ से कहा कि माँ मुझे भूख नहीं लगी आज कुछ नहीं खाऊँगा । 'क्यों' बेटा ! बात क्या हो गई माँ ने कहा । 'कुछ नहीं माँ'। तो खाने का समय हो गया खा ले, सब शुद्ध है, शुद्ध आटा है घी है।' 'मुझे भूख नहीं है ।' बात यह है कि आपने जो एक रुपया दिया था न, वह रखा था उससे आज मैंने चाट-पकौड़ी खाली ।" जिसे चाट पकोड़ी की आदत पड़ गई, अब उसे शुद्ध रसोई रुचिकर लगना मुश्किल है। ऐसे ही जिसे विषयों में रुचि हो गयी उसे आत्मा की बात रुचिकर मालूम नहीं पड़ती। भाई ! थोड़ा विषयों को कम करो और आत्मा को चखो तो सही, कितना अच्छा लगता है। स्वाद में बदलाहट तभी आयेगी जब विषय सामग्री में रुचि होते हुए भी उसमें प्रयत्न पूर्वक कमी लायी जायेगी एक हाथ से यह भी खाते रहें, और दूसरे से वह, तो हाथ भले ही दो हैं किंतु मुंह तो दो नहीं हैं। जिव्हा तो एक ही है। स्वाद लेने की शक्ति तो एक ही है। सभी मिलाओगे तो मिश्रण हो जायेगा ठीक स्वाद नहीं आयेगा । । स्वात्मानुभूति का संवेदन आत्मा का जो स्वाद है वह स्वाद स्वर्ग में रहने वाले देवों के लिए दुर्लभ है । कहीं भी संसार में चले जाओ सभी के लिए दुर्लभ है। केवल उसी के लिए वह साध्यभूत है, संभव है जिन्होंने अपने संस्कारों को परिमार्जित कर लिया है, अर्थात् मनुष्य भव पाकर जो राग-द्वेष से ऊपर उठ गये हैं। जिनकी अनुभूति में वीतरागता उतर आयी है । आप भी यदि एक बार देवगुरुशास्त्र के प्रति विश्वास करके, इस काम को हाथ में ले लो, तो मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, दिलाना क्या विश्वास आपको स्वयं करना होगा, विश्वास दिलाया भी नहीं जा सकता स्वयं किया जा सकता है कि आत्मा की । अगस्त 2007 जिनभाषित 8 Jain Education International कहा गया है कि ऐसा कौन सा बुद्धिमान होगा जो परोक्ष ज्ञान के माध्यम से श्रद्धान में उतरने वाली चीज को हाथ में रखकर दिखा सके। केवली भगवान् अपनी आत्मा को जानते देखते हैं किंतु दिखा नहीं सकते। आत्मा को तो स्वयं देखना होगा, कोई दूसरा दिखा नहीं सकता। शक्ति के धारक होकर भी केवली भगवान् अपनी आत्मा को हाथ पर रखकर दिखा नहीं सकते। आत्मा दिखने की वस्तु नहीं है आत्मा तो देखने की वस्तु है। स्वरूप तो बताया जा सकता है। लेकिन ज्ञात होने के बाद आपका यह परम कर्तव्य है कि प्रत्यक्षज्ञान को प्राप्त करके उसका संवेदन करें । जैसे मार्ग पर जाती हुई गाड़ी को रोकना या चलाते रहना तो आसान है लेकिन उसकी दिशा बदलना उसे सही दिशा में मोड़ना आसान नहीं है प्रयत्न साध्य इसीप्रकार जीवन की धारा को वीतरागता की ओर मोड़ने में प्रयास की आवश्यकता है। किंतु वीतराग से राग की ओर जाने में कोई प्रयास आवश्यक नहीं है वह तो अनादिकाल से उसी ओर जाने में अभ्यस्त है। ऊपर की ओर कोई चीज फेंकने के लिए तो प्रयास की आवश्यकता है पर नीचे तो वह अपने आप आ जायेगी, प्रयास नहीं करना पड़ता । आप का अभ्यास तो ऐसा है कि अभी यहाँ से निवृत्त होते ही आपके कदम घर की ओर बढ़ जायेंगे। पर निज घर कहाँ है इस ओर किसी का ध्यान नहीं है। मुनि का अभ्यास अपनी ओर मोड़ने का है और आपका गृहस्थ का अभ्यास घर की ओर जाने, उसी ओर बढ़ने का है। वीतरागता की ओर मोड़ने के लिए वाचनिक प्रयास, मानसिक प्रयास और शारीरिक प्रयास सभी प्रयास होना आवश्यक है। एक बार स्वभाव की उपलब्धि हो जायेगी तो फिर विभाव की ओर जाना संभव नहीं है। एक बार प्रयास करके आप उस ओर बढ़ जायें फिर यात्रा प्रारम्भ हो जायेंगी। थोड़ा परिश्रम होगा, पसीना आयेगा, कोई बात नहीं आने दो। टिकट खरीदते समय पसीना आता है, लाईन में लगते समय पसीना आ जाता है ट्रेन में चढ़ने समय पसीना आ जाता है किंतु फिर बाद में बैठ जाने के उपरांत ट्रेन चलने लगेगी तब आराम के साथ यात्रा होगी। इसी प्रकार मोक्षमार्ग में चलते-चलते थोड़ी तकलीफ लगेगी पर बाद में आनंद भी मिलेगा। प्रारम्भ में औषधि कड़वी लगती है पर बाद में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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