Book Title: Jinabhashita 2007 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 9
________________ हम सुनते हैं तो कुछ न कुछ अंश में हमें भी वीतरागी | आत्मानुभूति की ओर कदम नहीं बढ़ पा रहे हैं। जो जवान मानना चाहिये। मैंने कहा कि भइया आपकी वीतरागता दूसरे | हैं या जो प्रौढ़ हैं उनमें कोई परिवर्तन नहीं आता तो कोई तरह की है आप ऐसे वीतरागी हैं कि आपका आत्मा के | बात नहीं किंतु जो वृद्ध हैं उनमें भी कोई अन्तर नहीं आ प्रति राग नहीं है। आपकी अपेक्षा मैं रागी हूँ क्योंकि मेरा रहा। वृद्धत्त्व के उपरान्त भी वृद्धत्त्व नहीं आ रहा। वही आत्मा के प्रति राग है। लेकिन आपकी आत्मा के प्रति | राग-द्वेष वही विषय-कषाय जो अनादिकाल से चला आ उपेक्षा का यह परिणाम है कि जीवन में आत्मसंतोष नहीं | रहा है, उसी ओर आज भी कदम बढ़ रहे हैं। है। सारा अनुभव राग-द्वेष का है राग-द्वेष युक्त अशुद्ध मनुष्य जीवन एक प्रकार का प्लेटफार्म है स्टेशन पर्याय का है। भगवान् की देशना तो यह है कि सभी के | है। अनादिकाल से जो जीवन राग-द्वेष की ओर मुड़ गया पास भगवत्ता विद्यमान है किंतु अव्यक्त रूप से है शक्ति | है। उस मुख को हम वीतरागता की ओर मोड़ सकते हैं रूप से है व्यक्त रूप में नहीं है। जो भीतर है उसका | और उस ओर जीवन की गाड़ी को इसी मनुष्य जीवन उद्घाटन करना है उसी के लिए मोक्षमार्ग की देशना है।| रूपी स्टेशन से ही चला सकते हैं। यदि इस स्टेशन पर जिसे एक बार 'समय' की अनुभति हो गयी क्या | आ जाने पर भी आपको नींद आ जाती है, आलस्य आ वह अपने समय को दुनियादारी में व्यर्थ खर्च करेगा। वह | जाता है तो एक बार इस स्टेशन से गाड़ी निकल जाने समय का अपव्यय कभी नहीं करेगा। जिस व्यक्ति को के बाद वह मुड़ नहीं सकेगी। आलस्य को आप कर्म का आत्मनिधि मिल गयी क्या वह दस बीस रुपये को चोरी | उदय मानकर मत बैठे रहिये। यह आपके पुरुषार्थ की कमी करेगा। यदि करता है तो समझना अभी समयसार कंठस्थ | | मानी जायेगी। लोग कहते हैं कि जैसे ही सामायिक करने हुआ है जीवन में नहीं आया है। एक वैद्यजी के पास एक | बैठता हूँ जाप करने बैठता हूँ स्वाध्याय करने के लिये सभा रोगी आया और शीघ्र रोग मुक्त हो जाऊँ ऐसी दवा मांगी। में आ जाता हूँ तो निद्रा आने लगती है। मैं सोचता हूँ आपकी वैद्यजी ने परचे पर दवाई लिख दी और कहा कि उसे | निद्रा बड़ी सयानी है। जिस समय आप दुकान पर बैठते दूध में मिलाकर पी लेना। रोगी घर आया और दूध में | हैं और रुपये गिनते हैं उस समय कभी निद्रा नहीं आयी। उस पर्चे को घोलकर पी गया। दूसरे दिन जब आराम नहीं | वहाँ पर नहीं आती और यहाँ पर आती है इसका अर्थ, लगा तो वैद्यजी से शिकायत की कि दवा का असर नहीं | पुरुषार्थ की कमी है। रुचि की कमी है। हुआ। वैद्यजी ने कहा ऐसा हो नहीं सकता औषधि एक | एक शास्त्र सभा जुड़ी थी। एक दिन एक व्यक्ति दिन में ही रोग ठीक करने वाली थी। बताओ कौन सी को सोते देखकर पंडित जी ने पूछा क्यों भइया! सो तो दुकान से दवा ले गये थे। रोगी ने कहा आपने जो कागज | नहीं रहे हो। वह कहता है नहीं। वह ऊंघ रहा था फिर दिया था वही तो थी औषधि। हमने उसी को घोलकर पी | भी वह नहीं ही कहता है। एक दो बार फिर ऐसा ही पूछा लिया। तो उसने वही जवाब दिया और ऊंघता भी रहा। फिर पंडित भइया! यही हम कर रहे हैं। कोई ग्रंथ औषधि थोड़े | जी ने अपना वाक्य बदल दिया और कहा कि भइया सुन ही है। ग्रंथ में जो औषधि लिखी है उसे खोजना होगा उसे | तो नहीं रहे हो। उसने तुरंत उत्तर दिया नहीं तो। बात समझ प्राप्त करके उसका सेवन करना होगा। तभी अनादिकालीन | में आ गयी। सीधे-सीधे पूछने से पकड़ में नहीं आ रहा जन्म-जरा-मरण का रोग नष्ट होगा। वीतरागता ही औषधि | था। यहाँ पर आचार्य कुंदकुंद स्वामी पूछ रहे हैं कि है उसके सेवन से उसे जीवन में अङ्गीकार करने से ही | समयसार पढ़ रहे हो तो सभी कह देंगे कि पढ़ तो रहे हम जन्म-मृत्यु के पार होंगे। आत्मा की अनुभूति कर | हैं यदि पढ़ रहे हैं तो परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा है। सो सकेंगे। आप लोगों के लिए मंदिर वहीं है देव-गुरु-शास्त्र | रहे हैं किंतु कह रहे हैं कि सुन रहे हैं। यही प्रमाद है। भी वहीं हैं सब कुछ है किंतु इसके उपरान्त भी आपकी | समयसार पढ़ने सुनने अकेले की चीज नहीं है। प्रमाद गति उस ओर नहीं हो रही है उससे विपरीत हो रही है। छोड़कर अप्रमत्त दशा की ओर आने की चीज है। एक जैसे तेली का बैल घूमकर वहीं आ जाता है। इसीप्रकार | ही गाथा जीवन को आत्मानुभूति की ओर ले जाने के लिए आपका जीवन व्यतीत हो रहा है। बाह्य सामग्री को लेकर | पर्याप्त है पूरा समयसार रटने से कुछ नहीं होगा। जीवन आप स्वयं को बड़े मान रहे हैं। किंतु खड़े वहीं पर हैं।। उसके अनुरूप बनाना होगा। समयसार जीवन का नाम है - अगस्त 2007 जिनभाषित 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36