Book Title: Jinabhashita 2007 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 12
________________ श्रीशान्त्यष्टकम् (वंशस्थच्छन्दः) मुनि श्री प्रणम्यसागर जी (आचार्य श्री विद्यासागर जी संघस्थ) सुभारते येलुगमे निवासको भावार्थ- सातगौडा का नौवर्ष की आयु में किसी हि भीमगौडा सुजनेष्टपाटिलः। कन्या के साथ विवाह उनके माता-पिता ने करा दिया था। सुसत्यवत्यात्मज एव भूतले वह कन्या कुछ समय उपरांत मरण को प्राप्त हो गई। इसके स सातगौडा मुनिशान्तिसागरः॥१॥ बाद सातगौडा ने फिर विवाह नहीं किया और जीवन पर्यन्त अन्वयार्थ- (सुभारते) इस श्रेष्ठ भारत देश में | बह्मचर्य वत के साथ ब्रह्मचर्य व्रत के साथ रहकर बाद में मुनिव्रत अङ्गीकार (येलुगमे) दक्षिणा-पथ के येलुगम नामक ग्राम में | | करके मुक्ति स्त्री की सेवा की थी। (निवासकः) निवास करने वाले (सुजनेष्टपाटिल:) श्रेष्ठ दिगम्बरीभूय सरन् स्वयं पुरा व्यक्तियों के इष्ट पाटिल (भीमगौड़ा) भीमगौडा (हि) तथा प्रबोधयन् लुप्तमुनिप्रवृत्तिकान्। (सुसत्यवत्यात्मज) श्रीमती सत्यवती के पुत्र (एव) ही निजात्मसिद्धिं समवाप सुन्दरी (भूतले) इस धरा पर (स सातगौडा) वह सातगौडा स शान्तिसिन्धुर्हदि मे सदा वसेत्॥ ४॥ (मुनिशान्तिसागरः) मुनि शान्तिसागर हुए थे। अन्वयार्थ- (स्वयं पुरा) जो स्वयं ही पहिले सुरोपमङ्गश्च बलिष्ठदेहवान् (दिगम्बरीभूय) दिगम्बर दीक्षा लेकर (सरन्) विहार करते तथाऽन्तरङ्गो जिन वर्त्मनीरितः। रहे और (लुप्तमुनि प्रवृत्तिकान्) लोप को प्राप्त हो रही महीभुवो यो निरपेक्षबांधवः मुनि संबंधी प्रवृत्तियों को (प्रबोधयन्) समझाते हुए स शान्तिसिन्धुर्हदि मे सदा वसेत्॥२॥ (निजात्मसिद्धिं) अपनी आत्म सिद्धि वाली (सुन्दरी) अन्वयार्थ- (यः)जो (सुरोपमङ्गः) देवों सी उपमा | सन्दरी को (समवाप) प्राप्त किये। (सः) वह (शान्तिसिन्धुः) वाले शरीर (च) और (बलिष्ठदेहवान्) बलिष्ठदेह वाले | श्री शान्तिसागर आचार्य (मे) मेरे (हृदि) हृदय में (सदा) तथा अन्तरङः) तथा जिनका अन्तरङ्ग (जिनवर्त्मनि) हमेशा (वसेत) निवास करें। जिनमार्ग में (ईरितः) दौड़ता रहता था। जो (महीभुव:) शठैर्जनैीमविशालपन्नगैः धरा पर उत्पन्न हुए जीवों के (निरपेक्षबांधव:) निरपेक्ष पिपीलिकाभिः प्रचुरोपसर्गतः। बंधु थे। (स) वह (शान्तिसिन्धुः) शान्तिसागर आचार्य तपोधनोऽक्षोभत योगतो न यः (मे) मेरे (हदि) हृदय में (सदा) हमेशा (वसेत्) वास स शान्तिसिन्धुईदि मे सदा वसेत्॥५॥ करें। अन्वयार्थ- (शठै :जनैः)दुष्ट जनों के द्वारा नवाब्दिकेऽल्पायुषि यद्विवाहितो (भीमविशालपन्नगैः) भयंकर बडे-बडे सो द्वारा और मृतेऽपि तस्या न तथा पुनः कृतः। (पिपीलिकाभिः) चींटियों के द्वारा किये गये (प्रचुरोपसर्गतः) येनाऽऽयुषो मुक्तिरमा सुसेविता प्रचुर उपसर्ग से (यः तपोधनः) जो तपःपूत (न अक्षोभत) स शान्तिसिन्धुर्हदि मे वसेत् सदा ॥३॥ क्षोभ को प्राप्त नहीं हुए थे (सः) वह (शान्तिसिन्धुः) श्री अन्वयार्थ- (यत्) चूँकि (नवाब्दिके) नव वर्ष की शान्तिसागर आचार्य (मे) मेरे (हृदि) हृदय में (सदा वसेत्) (अल्पायुषि) अल्प आयु में वह (विवाहितः) विवाहित | हमेशा वास करें। हुए थे। (तस्याः ) उस स्त्री के (मृतेऽपि) मर जाने पर महाव्रतप्राज्य विभूतये कला भी (तथा न पुनः कृतः) उन्होंने पुनः विवाह नहीं किया। सुधीगणानां परिवेषतो वृतः। (येन) जिन्होंने (आ आयुषः) आयुपर्यन्त (मुक्तिरमा) शशाङ्कशोभेव विशोभते स्म यः मुक्तिरूपी स्त्री की (सुसेविता) अच्छी तरह सेवा की (स)| स शान्तिसिन्धुईदि मे सदा वसेत्॥६॥ वह (शान्तिसिन्धुः) श्री शान्तिसागर आचार्य (मे) मेरे अन्वार्थ- (यः) जो (महाव्रतप्राज्यविभूतये) महाव्रतों (हदि) हृदय में (सदा) हमेशा (वसेत्) वास करें। । की विशाल विभूति के लिये (कला) चन्द्रमा की कला 10 अगस्त 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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