Book Title: Jinabhashita 2007 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ परिणाम मीठा निकलता है। यह मोक्षमार्ग रूप औषधि भी | रहेगा। जीवन में सिवाय दु:ख के कुछ हाथ नहीं आयेगा। ऐसी ही है जो अनादिकालीन रोग को निकाल देगी और | अपनाना है तो एकमात्र अपनाने योग्य मोक्षमार्ग है जो कि शुद्ध चैतन्य तत्त्व की उत्पत्ति उसमें से होगी और आनंद | स्वाश्रित है। देव-गुरु-शस्त्र उस स्वाश्रित मोक्षमार्ग में अनिवार्य ही आनंद रहेगा उसमें। अध्यात्म को पढ़कर अपने जीवन | आलम्बन हैं। इनके आलंबन से हम भवसागर से पार उतर को उसी ओर ढालने का प्रयास करना चाहिये, यही | सकते हैं और अनंत काल के लिए अपने शुद्धात्मा में लीन स्वाध्याय का और देव-गुरु-शास्त्र की उपासना का वास्तविक | हो सकते हैं। फल है। यदि प्रयास मोक्षमार्ग के लिए नहीं किया जायेगा 'समग्र' 'चतुर्थखण्ड' से साभार तो संसार मार्ग अनादिकाल से चल रहा है और चलता आचार्य श्री विद्यासागर जी के शुभाशीर्वचन मोक्षमार्ग-मोहमार्ग का अंतर उक्त वचन दिनांक २७-०६-२००७ को कुण्डलपुर में आचार्य श्री विद्यासागर जी ने विद्वान् प्रशिक्षणार्थियों को आशीर्वाद देते हए व्यक्त किये। शास्त्रिपरिषद के शताधिक विद्वान् भोपाल में आयोजित उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी महाराज के सान्निध्य में विद्वान् प्रशिक्षण शिविरोपरांत भोपाल पंचायत कमेटी के साथ ब्र. जयनिशांत टीकमगढ़, पं. पवन दीवान मुरैना, पं. जयंतकुमार सीकर के नेतृत्व में कुण्डलपुर पहुंचे। क्षेत्र की वंदना-लाभोपरांत, विशेष धर्मसभा का मंगलाचरण पं. अखिलेश जैन डिकौली ने गाथासूत्रों से किया। विद्वद्वर्ग व पंचायत कमेटी भोपाल ने श्रीफल भेंट किये।"जिनभाषित" का श्रुताराधना- विशेषांक पं. पवन दीवान, "प्रतिष्ठापराग" का नया संस्करण पं. मनीष टीकमगढ़ व "प्रेरणा'" स्मारिका पं. मनीष शाहगढ़ ने आचार्य श्री को भेंट किये। शिविर की उपलब्धियों पर संस्कृत भाषा में पं. सोनल जैन दिगौड़ा ने व "नई पीढ़ी को दिशा" बिंदु पर पं. पंकज जैन वाराणसी ने प्रकाश डाला। अनंतर आचार्य श्री ने शुभाशीष वचनों को उक्त शीर्षक से प्रारंभ करते हुये कहा कि मोक्षमार्ग-माहमार्ग में इतना अंतर है जितना की पूर्व-पश्चिम में, धरती-आकाश में, सुख-दुःख में व स्व-पर के बीच में है। जब से संसार है तभी से मोक्ष है, मोक्षमार्ग पर चलने से मोहमार्ग उखड़ता है। योग्य पात्राभाव में भ. महावीर की दिव्यध्वनि ६६ दिन नहीं खिरी, तब इन्द्र द्वारा निमित्त उपस्थित किया गया। मुनि बनाया नहीं जाता मुनि बन जाता है। पहले दीक्षा, फिर प्रवचन हो, आज पहले प्रवचन सिखाते हैं। मुनिराजों को भी प्रवचन सिखाते हैं। आज आचरण/संयम पालन की नितान्त आवश्यकता है। आचार्य समन्तभद्र जी के अनुसार पाप शत्रु है, धर्म बंधु है। इन दोनों को समझने वाला श्रेयो ज्ञाता कहलाता है। मोह की वृद्धि में ज्ञान कुंठित हो जाता है। जब गौतम का मोह गला तब वह स्वतः दीक्षित हो गया, वीतरागता का प्रदर्शन न हो। आत्ममंथन होने पर केवलज्ञान होता है। तीर्थंकर महागुरु होते हैं उनके संसर्ग से इन्द्रभूति भी गुरु हो गये, नवोदित विद्वानों को ज्ञान के साथ आचरण की ओर बढ़ना चाहिए। केवल ज्ञानोत्पति में मोह ही बाधक है अतः मोह नष्ट करने हेतु कमर कसना चाहिए। आज बेल्ट कसते हैं। जबकि पहले धोती वाले कमर कसते थे। वीतरागता को केवल शब्दों में नहीं चिन्तन में लाओ। हम मोह व मोक्ष दोनों नावों में सवार नहीं हों। सही नाव की पहिचान कर गुरु का आश्रय लें। गुरु तारण-तरण होते हैं। संसार की भूल-भूलैया में मत फँसो। आचार्य श्री ने कहा कि स्वपुरुषार्थ बलेन मोह पर प्रहार करें उसके प्रभाव में न आवें। अंत में आचार्य श्री ने आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी व आचार्य ज्ञानसागर जी को नमन किया। पं. पवन कुमार दीवान प्रचार मंत्री/शिविर संयोजक अ.भा.दि. जैन शास्त्रिपरिषद अगस्त 2007 जिनभाषित , www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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