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विरोध अकालमरण का, पोषण नियतिवाद का
स्व. पं. श्यामसुन्दरलाल जी शास्त्री
'अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा' अज्ञान से अथवा प्रमाद से | कुन्दकुन्द की दुहाई के साथ-साथ मिलावट से प्रदूषित कर जिनागम के विरुद्ध बोला जाना. लिखा जाना कदाचित अल्प लिया है। इस प्रसंग में आचार्यश्री की यह गाथा कितनी पापबंध या अबंध का कारण हो सकता है किंतु यदि | वस्तुपरक हैअहंमन्यता या पंडितमन्यता के कारण यह प्रक्रिया अपनायी पदमक्खरं च एक्कं पि जो ण रोचेदि सुत्तणिहिट्ठ। जाती है तो यह अवश्य ही तीव्रातितीव्र अशुभ कर्मबंध सेसं रोचतो वि हु मिच्छाइट्टि मुणेयव्वो॥३८॥भ.आ.॥ का कारण हो जाती है और घोर श्रुतावर्णवाद के कारण जिनवाणी का विपुल ज्ञानी भी यदि भगवत्-जिनोक्त दर्शनमोहनीय का, जो अनन्त संसार का कारण है, ससम्मान | एक पद या अक्षर को भी अप्रामाणिक मानता है तो वह आमंत्रण हो जाता है।
मिथ्यादृष्टि ही है। साधारणतया देखा जाता है कतिपय सज्जन विगत कुछ वर्षों से अकालमृत्यु या अकालमरण पन्थव्यामोह, खेमाबंदी अथवा स्वल्पकालिक आर्थिक लाभ | को लेकर यथार्थता से बहुत दूर जो वातावरण निर्मित हुआ या ख्यातिलाभ के कारण जनसाधारण में आगमविरुद्ध |
| है वह सर्वथा आगमविरुद्ध तो है ही, निष्क्रियता का बोलने में संकोच नहीं करते और अपने खेमे के पत्रों में | जन्मदाता, नियतिवाद का पोषक, आत्मकल्याण का विनाशक यथार्थता के विपरीत कुयुक्तियों से लच्छेदार भाषा में अपना | और मुमुक्षुता की गंध से भी बहुत दूर है। अनागमिक पक्ष सिद्ध करते रहते हैं। साधारण या स्वल्पज्ञानी अकालमरण:- अकाल + मरण शब्द इन दो शब्दों लोग तात्कालिक प्रभाव में बह जाते हैं। जिसे अपना माथा | का संयोगी शब्द है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लगाने का समय नहीं, माथा लगाना आता नहीं, अथवा | 'स्वपरिणामोपात्तस्यायुषः इन्द्रियाणां बलानां च कारणवबुद्धि होते हुए भी, उसे व्यक्त करने का तरीका नहीं है | शात्संक्षयो मरणं,' अर्थात् अपने परिणामों से प्राप्त हुई आयु और साहस भी नहीं है वह ऐसे अनागमिक-सुविधापूर्ण | का, इन्द्रियों का और मन-वचन-काय इन तीनों बलों का मार्ग का पथिक बन जाता है।
कारण विशेष के मिलने पर नाश होना मरण है यह मरण सिद्धांतचक्रवर्ती आचार्यप्रवर नेमिचन्द्र की निम्न
शब्द की व्याख्या है। इन्द्रियों और बलों का सद्भाव या लिखित दो गाथाएँ ध्यान देने योग्य हैं
अभाव निश्चित रूप से आयु के सद्भाव और अभाव पर सम्माइट्ठी जीवो उवइ8 पवयणं तु सद्दहदि।
निर्भर करता है और इसलिए धवलाकर ने पुस्तक १३ में सद्दहदि असब्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा ॥२७॥ | 'आयुषः क्षयस्य मरणहेतुत्वात्' आयु कर्म के क्षय को मरण सुत्तादो तं सम्म, दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि। | का कारण माना है। 'अनुभूयमानायुःसंज्ञक पुद्गलगलनं सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी॥२८॥| मरणं' इसप्रकार आयुकर्म के विनाश को ही सभी आचार्यों
गो.जी.कां॥ ने मरण की संज्ञा प्रदान की है। जिसप्रकार ज्ञानावरणीय अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव जिनोपदिष्ट तत्त्व का | आदि सातकर्म प्रकृति-स्थिति-अनुभाग और प्रदेश के भेद श्रद्धान करता है। कदाचित् गुरु के अन्यथोपदेश से या से चार बंधयुक्त हैं उसीप्रकार यह आयुकर्म भी चारों अज्ञानतावश अन्यथा श्रद्धान भी कर बैठता है वहाँ तक | बंधयुक्त है। जिसप्रकार अन्य कर्मों की स्थिति नियत है उसके सम्यक्त्व का विनाश नहीं होता है किंतु यदि कोई उसी प्रकार इस आयुकर्म की स्थिति नियत है। जिस भव वस्तुतः तत्त्ववेत्ता उसे आगम से यथार्थता का परिज्ञान कराता में बध्यमान आयु जिन परिणामों से जिस परिमाण में बाँधी है फिर भी वह अपनी अयथार्थता को बदलता नहीं, तो | | गई है उस भव में उन परिणामों के परिणमनवशात् अग्रिम उसीसमय से वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
भव की आयु की स्थिति घट भी सकती है, बढ़ भी सकती ये दो गाथायें उन भ्रमित भाईयों को अमृततुल्य हैं, | है। महाराज श्रेणिक ने यशोधर मुनिराज के गले में मृतसर्प जिन्होंने किसी प्रकार की चकाचौंध में गृहीतमिथ्यात्व | को डालकर ३३ सागर की उत्कृष्ट नरकायु का बंध किया अङ्गीकृत कर लिया है और अपना तत्त्वश्रद्धान भगवान् । था, पश्चात् भगवान् वीर प्रभु के चरण सान्निध्य में शुभ 18 अगस्त 2007 जिनभाषित
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