Book Title: Jinabhashita 2007 08 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 8
________________ पूजा में लीन हो गये। सबसे बड़ी यही है । जिस चूहे को गजानन नहीं पकड़ सके उस चूहे को इसने पकड़ लिया । यही सबसे बड़ी उपास्य है । सात-आठ दिन व्यतीत हो गये। बिल्ली का स्वभाव होता है कि कितना भी अच्छा खिला पिला दो वह चोरी अवश्य करेगी। एक दिन अंगीठी के ऊपर दूध की भगौनी रखी थी बिल्ली चोरी से दूध पीने लगी, सेठानी ने देख लिया और क्रोध में आकर उसने बिल्ली की पीठ पर एक लाठी मार दी, बिल्ली मर गई। सेठजी को जब सारी घटना मालूम पड़ी तो पहले तो खेद हुआ लेकिन तुरंत विचार आया कि जो मर गया वह कमजोर है । वह भगवान् नहीं हो सकता। लगता है सेठानी बड़ी है। उसने गजब कर दिया। गजानन चूहे से डर गये, चूहा बिल्ली की पकड़ में आ गया और अब बिल्ली सेठानी के हाथों समाप्त हो गयी । है सेठजी उसके चरणों में बैठ गये। अब सेठानी की पूजा प्रारंभ हो गयी । अनुभव धीरे-धीरे बढ़ रहा है। एक दिन प्रातः सेठजी ने सेठानी से कहा कि आज हमें दुकान में काम अधिक है। हम साढ़े दस बजे खाना खायेंगे, खाना तैयार हो जाना चाहिये। सेठानी ने कहा ठीक है। पर प्रतिदिन पूजा होने के कारण सेठानी प्रमादी हो गई थी, समय पर रसोई नहीं बन पायी। जब सेठजी आये तो बोली आइये, आइये। अभी तैयार हो जाती है। सेठजी क्रोधित हो उठे और सेठानी पर वार कर दिया सेठानी मूर्छित हो गयी जब होश आया तब सेठजी सोच में पड़ गये कि अभी तक तो मैं सेठानी को सबसे बड़ा समझ रहा था किंतु अब पता चला कि मैं ही बड़ा हूँ। अब मुझे अनुभव हो गया कि मुझ से बड़ा कोई भगवान् नहीं है और वह अपने आपमें लीन हो गया। आप सारी बात समझ गये होंगे। यह तो मात्र कहानी है। इससे आशय यही निकला कि 'स्व' की ओर आना श्रेयस्कर । स्व की ओर आने का रास्ता मिल सकता है तो सच्चे देव-गुरु-शास्त्र से ही मिल सकता है अन्य किसी से नहीं मिल सकता है। इसलिए उनको बड़ा मानना है और उनका सहारा तब तक लेना है जब तक कि हम अपने आप में लीन न हो जायें। भगवान् का दर्शन, भगवान् की पूजन, भगवान् बनने के लिए करना है । भगवान् की पूजा श्रीमान् बनने के लिए नहीं है। भगवत् पद की उपलब्धि सांसारिक दृष्टिकोण रखकर नहीं हो सकती । दृष्टि में परमार्थ होना चाहिये। हम जैसे-जैसे परमार्थभूत 6 अगस्त 2007 जिनभाषित क्रियाओं के माध्यम से राग-द्वेष को कम करते चले जायेंगे, वैसे-वैसे अपनी आत्मा के पास पहुँचते जायेंगे। यह प्रक्रिया ऐसी ही है इसके बिना कोई भगवान् नहीं बन सकता। देवगुरुशास्त्र के माध्यम से जिस व्यक्ति ने अपने आपके जीवन को वीतरागता की ओर मोड़ लिया, वीतराग केंद्र की ओर मोड़ लिया वह अवश्य एक दिन आत्मा में विराम पायेगा। किंतु यदि देवगुरुशास्त्र के माध्यम से जो जीवन में बाहरी उपलब्धि की बांछा रखता हो तो उसे वही चीज मिल जायेगी आत्मोपलब्धि नहीं होगी। मुझे, एक बार एक व्यक्ति ने आकर कहा कि महाराज 'हमने अपने जीवन में एक सौ बीस बार समयसार का अवलोकन कर लिया ! कंठस्थ हो गया मझे।' अब उनसे क्या कहता मन में विचार आया कि कहूँ आपने मात्र कंठस्थ कर लिया है । और मैंने हृदयस्थ कर लिया है। आपने उसे शिरोङ्गम करके अपने मस्तिष्क में स्थान दिया है। आपको आनंद आया या नहीं पर हमारे आनंद का पार नहीं है। बंधुओ । आत्मानुभूति ही समयसार है। मात्र जानना समयसार नहीं Jain Education International समयसार का अर्थ है 'समीचीन रूपेण अयतिगच्छति व्याप्नोति जानाति परिणमति स्वकीयान् शुद्धगुणपर्यायान् यः सः समयः'- अर्थात् जो समीचीन रूप से अपने शुद्ध गुण पर्यायों की अनुभूति करता है उनको जानता है उनको पहचानता है उनमें व्याप्त होकर रहता है उसी मय जीवन बना लेता है वह है 'समय' और उस 'समय' का जो सार है वह है समयसार । ऐसे समयसार के साथ व्याख्यान का कोई संबंध नहीं वहाँ तो मात्र एक रह जाता है । एक: अहं खलु शुद्धात्मा - एक मैं स्वयं शुद्धात्मा। ऐसा कुन्दकुन्दाचार्य ने लिखा है। ताश में बादशाह से भी अधिक महत्त्व रहता है इक्के का । एक अपने आपमें महत्त्वपूर्ण है वह शुद्धात्मा । अपनी ओर आने का रास्ता बताने वाले देवगुरुशास्त्र हैं। सच्चे देव के माध्यम से शुद्धात्मा का भान होता है। गुरु के माध्यम से वीतरागता की ओर दृष्टि जाती है शुद्धत्व की प्रतीति होती है और गुरुओं के माध्यम से प्राप्त जो जिनवाणी है उसमें कहीं भी राग-द्वेष का कोई स्थान नहीं रहता उसके प्रत्येक अक्षर से वीतरागता मुखरित होती है। इस तरह इन तीनों के द्वारा वीतरागता का बोध होता है, वीतरागता को हमें जीवन का केंद्र बनाना चाहिये । एक व्यक्ति ने कहा कि महाराज इतनी चर्चा आदि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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