Book Title: Jinabhashita 2007 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ सम्पादकीय 'दिया' दे दिया श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलगिरि-कुण्डलपुर, जिला-दमोह (म.प्र.) में संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के सान्निध्य में दिनांक १४, १५, १६ मई, २००६ को त्रिदिवसीय श्रुताराधना शिविर का आयोजन किया गया। श्री दि. जैन सिद्धक्षेत्र प्रबंध समिति के आग्रह पर आयोजित इस शिविर में देश के ख्याति प्राप्त मनीषियों ने अपनी सहभागिता निभाई। इसी कड़ी में दिनांक १६ मई, २००७ को आचार्यश्री ज्ञानसागरजी महाराज के ३५वें समाधि दिवस पर उन्हीं के प्रमुख, प्रखर शिष्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने अपनी 'कृतज्ञताञ्जलि' में अपने गुरुदेव के विषय में जो यथार्थ भावभूति लिए हुए शब्दचित्र प्रस्तुत किया, उसे जिन्होंने सुना उन्हें लगा कि "गुरु हो तो वैसा और शिष्य हो तो ऐसा"। आप भी इस वक्तव्य को पढ़ेंगे तो गुरुभक्ति के भाव जागृत हुए बिना नहीं रहेंगे। यह मेरा परम सौभाग्य था कि मैंने उस वक्तव्य को तुरन्त लेखनीबद्ध कर लिया था, उसे ही हूबहू यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। अष्टपाहुड़ में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है कि हिंसारहिए धम्मे अट्ठारहदोसवज्जिए देवे। णिग्गंथे पव्वयणे सद्दहणं होइ सम्मतं॥ अर्थात् हिंसा रहित धर्म, अठारह दोषों से रहित देव और निर्ग्रन्थ गुरु में जो श्रद्धा है वह सम्यग्दर्शन है। आचार्य कुन्दकुन्द देव के द्वारा प्राभृत ग्रंथों की रचना हुई। यह केवल आत्मतत्त्व की ही बात करते हैं। ध्यान रखें रत्नकरण्ड श्रावकाचार की गाथा श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागम-तपोभृताम्। त्रिमूढापोढमष्टाङ्गम्, सम्यग्दर्शनमस्मयम्॥ अर्थात् मोक्षमार्ग के कारणस्वरूप देव-शास्त्र-गुरु का तीनमूढ़ता रहित, अष्ट अंग सहित, आठ मद रहित श्रद्धान (विश्वास) करना सम्यग्दर्शन है। मैं इस गाथा को पूर्वोक्त गाथा की छाया मानता हूँ। हिंसा से रहित धर्म हो, अठारह दोषों से रहित देव हो, निर्ग्रन्थ गुरु हो, इनमें श्रद्धान होना ही सम्यग्दर्शन है। चार कथाएँ हैं- संवेग, निर्वेद, आक्षेपिणी,विक्षेपिणी। गुरुदेव (आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज)की कथा संवेग, निर्वेद की कथा है। आक्षेपिणी, विक्षेपिणी कथा यह न्याय के विषय हैं। गुरुदेव (आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज) स्वयं संस्कृतज्ञ प्राकृतज्ञ थे। वे कनड़ भाषी (विद्याधर) को कैसे समझाएँगे? उनकी अस्सी वर्ष की अवस्था, मुँह में दाँत नहीं, पलकें सफेद और बड़ी। शरीर बता रहा है कि अंतिम पड़ाव पर हैं लेकिन संवेग और निर्वेद की कथा उनके पास है। उनमें कितनी दया, करुणा होगी कि यह भी नहीं पूछा कि कितने पढ़े हो? पूछते तो हम बताते क्या (कन्नड़ में) कैसा संयोग? वे कुछ प्रतीक्षा में थे। ऐसा लगा कि जैसे चाहते हों कि जो है उसे दे जायें और जायें। क्या भावना? क्या उद्देश्य? स्वयं में तो जागृत थे ही,माँ की तरह। माँ भोजन करती है तो गर्भस्थ शिशु को मिल ही जाता है। मैं करके ही रहूँगा; ऐसा आश्रय मत रखो। गुरु ने मुझे प्रगट कर दिया, दिया दे दिया और वे चल दिये। वे अपने आप में तो थे ही; उन्होंने मुझसे जो कहा उसमें शिक्षा देने का भाव था। वे सदा शिक्षित, दीक्षित करना चाहते थे। यदि वे सल्लेखना नहीं लेते तो मुझे सल्लेखना से शिक्षित कैसे करते? लोग पूछते हैं आपने उन्हें कैसे सँभाला? मैं सोचता हूँ उन्होंने मुझे कैसे सँभाला? वृद्ध, बालक, प्रौढ़, विद्वान् उनके पास आ जाए तो उनके पास सभी को समझाने की शैली थी? वे हमेशा कहा करते थे- उदाहरण के बतौर। उनके मन में 2 अगस्त 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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