Book Title: Jinabhashita 2007 03 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 5
________________ आचार्य कुन्दकुन्द पर एकांतवादी होने का आक्षेप छोटे मुँह बड़ी बात है। यह उन्हें एकांतमिथ्यादृष्टि कहने का दुःसाहस है। यह समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकाय जैसे आर्षग्रंथों को मिथ्यादृष्टि द्वारा रचित कुशास्त्र घोषित करने की जिनागमविरोधी चेष्टा है। यह कुन्दकुन्दान्वय में दीक्षित उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंदेव आदि अनेक आचार्यों को एकांत-मिथ्यादृष्टि गुरु के अन्वय में दीक्षित बतलाने का प्रयास है। यह दो हजार वर्षों से कुन्दकुन्दाम्नाय में प्रतिष्ठित होती आ रही जिनप्रतिमाओं को मिथ्यादृष्टि-आम्नाय में प्रतिष्ठित साबित करने की कोशिश है। इसका प्रयोजन है आचार्य कुन्दकुन्द को मंगलरूप में स्मरण करने के अयोग्य घोषित कर, उनके स्थान में अपने गुरु को मंगलरूप में प्रतिष्ठापित करने के प्रयास का औचित्य सिद्ध करना। आचार्य कुन्दकुन्द पर दूसरा आक्षेप डीमापुर (नागालैण्ड) में विराजमान स्वयं उन गुरु महोदय ने किया है। मझे 29 जनवरी 2007 को डीमापुर से पूर्वोक्त श्री पी.के. जैन (पी.के. ट्रेवल्स)का फैक्स (0386-225532) द्वारा भेजा गया चार पृष्ठों का समाचार प्राप्त हुआ है। उसमें 23 जनवरी, 2007 को डीमापुर में आचार्य श्री पुष्पदन्तसागर जी के सान्निध्य में आचार्य श्री कुन्दकुन्द के व्यक्तित्व और कृतित्व पर सम्पन्न संगोष्ठी का विवरण है। विवरण में आचार्य श्री पुष्पदन्तसागर जी के वक्तव्य को उद्धृत करते हुए कहा गया है- "उन्होंने आगे बोलते हुए कहा कि जब पंचमकाल में ऋद्धि उत्पन्न होती ही नहीं है, तो फिर कुन्दकुन्द को कैसे हो सकती है? उन्होंने कहा यह सब मनगढन्त बातें हैं, मैं किसी भी विद्वान् को प्रमाण नहीं मानता, मैं मात्र आचार्यों को प्रमाण मानता हूँ। और कुन्दकुन्द के ऋद्धि होने की बात, उनके विदेह जाने की बात कांजीपंथियों की फैलाई हुई है।--- आचार्य श्री ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए, आचार्य देशभूषण जी महाराज द्वारा लिखित णमोकारग्रंथ और जिनेन्द्रवर्णी के द्वारा लिखे गये जैनेन्द्रसिद्धांतकोश का हवाला देते हुए कहा कि वे इन ग्रंथों के नाम तो बता रहे हैं, लेकिन वे न तो भागसंख्या ही बतायेंगे और न ही पेजसंख्या। यदि आप विद्वान् हैं, तो स्वयं ही देख लें कि किस तरह से आचार्य जिनचन्द्र के विषय में जिनेन्द्रवर्णी ने लिखा है। मैं उस घटना का उल्लेख भी नहीं करना चाहता। यदि मैंने कुन्दकुन्द के गुरु के विषय में सच बताया, तो आप कुन्दकुन्द को नमस्कार करना छोड़ देंगे।" आचार्य श्री पुष्पदन्तसागर जी के इन शब्दों से उनका यह अभिप्राय प्रकट होता है कि जिनेन्द्रवर्णी जी ने कुन्दकुन्द के गुरु जिनचन्द्र के विषय में जो लिखा है वह सत्य है और उस सत्य के कारण कुन्दकुन्द नमस्कार के योग्य नहीं है। आचार्य जी ने यह बात उन विद्वानों को सम्बोधित करते हुए कही है, जिन्होंने कुन्दकुन्द के प्रति अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा प्रकट करते हुए मंगलाचरण से उनका नाम हटाये जाने को अनुचित कहा था। इससे आचार्य जी का मन्तव्य स्पष्ट हो जाता है। वे यह द्योतित करना चाहते हैं कि कुन्दकुन्द के गुरु के विषय में जिस सच का उन्होंने संकेत किया है, वह इतना गंभीर है कि उसे जानने के बाद अज्ञानी भले ही कुन्दकुन्द को नमस्कार के योग्य मानते रहें. किन्त ज्ञानी कदापि नहीं मान सकते। आचार्य जी ने संगोष्ठी में कन्दकन्द के प्रति अश्रद्धा जगानेवाली यह अप्रासंगिक बात क्यों उठायी? इस प्रश्न पर विचार करने से रहस्य समझ में आ जाता है। वह यह कि इस प्रकार विद्वानों के मन में कुन्दकुन्द के प्रति अश्रद्धा पैदा कर, वे यह सिद्ध करना चाहते हैं कि उन्होंने मंगलाचरण से कुन्दकुन्द का नाम हटाकर उचित ही किया है। सच की छानबीन- आवश्यक ___ कुन्दकुन्द के गुरु के विषय में वह सच क्या है और क्या वह सचमुच में सच है? इसकी जानकारी और छानबीन करना आवश्यक है। क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी जी ने 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश' के प्रथम भाग (परिशिष्ट 4) में पृष्ठ 490 पर लिखा है "माघनन्दी के पश्चात् कुन्दकुन्द के गुरु आचार्य जिनचन्द्र का नाम आता है। --- श्वेताम्बरसंघ के आदिप्रवर्तक का नाम भी जिनचन्द्र कहा गया है। --- इस विषय में यहाँ विचारकों के समक्ष एक क्लिष्ट कल्पना प्रस्तुत - मार्च 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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