Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 32
________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा जिज्ञासा- परमाणु का आकार कैसा होता है, बताइये? | अर्थ- उन बिलों में अत्यंत दुर्गंध है तथा वहाँ सदैव समाधान- इस संबंध में निम्न प्रमाण दृष्टव्य है:- | अंधकार व्याप्त रहता है। १. आदि पुराण पर्व २४ श्लोक १४८ में इस प्रकार इसी प्रकार उन नरकों में सदैव घोर अंधकार व्याप्त कहा है: रहता है। इस पर आपका यह प्रश्न स्वाभाविक ही है। कि अणवः कार्य लिंगाः स्युः द्विस्पर्शाः परिमंडलाः। | फिर नारकी एक दूसरे को कैसे देख पाते होंगे? मैंने इस एक वर्ण रसा नित्याः स्युरनित्याश्च पर्ययः ॥१४८॥ | प्रश्न को विभिन्न शास्त्रों में अच्छी तरह ढूंढा, पर कहीं भी अर्थ- वे अणु अत्यंत सूक्ष्म, कार्य से पहिचान में | उत्तर न मिलने पर, यह प्रश्न मैंने पू.आचार्य विद्यासागरजी आने वाले, दो स्पर्श-एक गंध, एक वर्ण, एक रस वाले, | महाराज को निवेदित किया था। पू. आचार्यश्री ने बताया कि गोलाकार, और नित्य होते हैं, पर्याय की अपेक्षा अनित्य भी | जैसे उल्लू को रात्रि में ही दिखता है दिन में नहीं, उसी प्रकार होते है। इन नारकियों को भी ऐसे ही कार्य का उदय मानना चाहिये २. श्री आचारसार में इस प्रकार कहा है: जिससे उनको अंधकार में भी सब कुछ दिखायी देता हो। अवुश्च पुदगलोऽमेद्यावयवः प्रचय शक्तितः। हमें भी अपनी मान्यता तदनुसार बनानी चाहिये। कामश्च स्कंधभेदोत्थ चतुरस्त्रस्त्वतीन्द्रिय ॥३/१३॥ प्रश्नकर्ता- पं. गुलजारी लाल जी, रफीगंज, गया अर्थ- अभेद अवयव वाला, प्रचय शक्ति की अपेक्षा जिज्ञासा- क्या भवनवासी देवों का भी जन्म के बाद कायवान, स्कंध के भेद से उत्पन्न चतुष्कोण, अतीन्द्रिय, | अभिषेक होता है? ऐसा पुद्गल का अणु है। अर्थात् अणु चौकोर आकार वाला समाधान- वैमानिक देवों का तो जन्म के बाद अभिषेक होता ही है, यह तो सबको ज्ञात है आपका तात्पर्य ३. पं. माणिकचंदजी कौन्देय (टीकाकार-श्लोक | यहाँ भवनत्रिक देवों से है। इस संबंध में तिलोय पण्णत्ति अ. वार्तिक) ने अपनी पुस्तक 'शुद्ध द्रव्यों की आकृतियाँ' में | ३/२२६ में इस प्रकार कहा है:अणु का आकार चौकोर कहा है। पठमंदहण्हदाणं तत्तो अभिसेय-मंडल-गदाणं। इस प्रकार अणु के आकार के संबंध में दो प्रमाण सिंहासण द्विदाणं, एदाण सुरा कुणंति अभिसेयं ॥२२६॥ प्राप्त होते हैं। अर्थ- सर्वप्रथम स्नान करके, फिर अभिषेक-मंडप प्रश्नकर्ता- श्रीमती कमलेन्दु जैन आगरा | के लिये जाते हुये (तुरंत उत्पन्न) देव को सिंहासन पर जिज्ञासा- नरकों में तो घना अंधकार होता है। फिर | बैठाकर ये (अन्य) देव अभिषेक करते है। नारकी एक दूसरे को पहचान कर मार-पीट कैसे करते | उपरोक्त गाथा से स्पष्ट होता है कि भवनवासी देवों का, उत्पन्न होने के बाद अभिषेक किया जाता है। परंतु ऐसा समाधान- नरकों में घोर अंधकार स्वभाव से ही | कथन व्यंतर एवं ज्योतिषी देवों के वर्णन में, किसी भी शास्त्र होता है। जैसा निम्नप्रमाणों से ज्ञात होता है: में उपलब्ध नहीं होता है। इससे यह मानना चाहिये कि १. तिलोय पण्णत्ति २/१०२ में कहा है भवनवासी देवों का तो जन्म के बाद अभिषेक होता है, अन्य उत्तपद्ण्णय मझे हों तिहु वहवो असंख वित्थाटा। । व्यंतर एवं ज्योतिषी का नहीं होता। संखेज्जावास जुत्ता थोवा होर-तिमिर-संजुत्ता॥१०२॥ प्रश्नकर्ता- रूपचंद्र बंडाबेल अर्थ- पूर्वोक्त प्रकीर्णक बिलों में, असंख्यात योजन जिज्ञासा- उदयाभावी सच का क्या स्वरूप है? विस्तार वाले बिल बहुत है। और संख्यात योजन विस्तार समाधान- उदयाभावी सच का स्वरूप आगम में वाले थोडे हैं। ये सब बिल घोर अंधकार में व्याप्त रहते हैं। इस प्रकार कहा है। १. श्री त्रिलोकसार में भी इसी प्रकार कहा है: । १. श्री धवला प.७/९२ सव्वधादि फद्दयाणि अणंत कुहिदादइ दुग्गंधा णिरया णिच्चंधयार चिदा॥१७८ ॥ | गण हीणाणि हो दूण देसधादि फद्दयत्रणेण परिणमिय उदयमा होंगे? 30 मार्च 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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