Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 20
________________ लक्ष्य है- "भमा वै सखं. नाल्पे सखमस्ति" अर्थात समष्टि । में एक जैसी आत्मा है। भले ही उनके शरीर उनकी गतियों के सुख में ही मानव का सच्चा सुख निहित है, अल्प के | के अनुरूप हो सकते हैं। इस भेद के आधार पर किसी का सुख में सुख नहीं है। हनन नहीं करना चाहिए। जीओ और जीने दो का सिद्धांत ___ भगवान् महावीर ने कहा कि कामनाओं को जीतो; यही बताता है। उन्होंने कहा किक्योंकि कामनाओं का कोई अन्त नहीं है। कामनायें असीम सव्वे पाणा पियाउआ सुहसाया दुक्खपडिकूला। हैं और व्यक्ति भी अनेक हैं। हम सोचें कि हम किसको क्या अपियवहा पियजीविणो जिविउ कामा॥ दे सकते हैं? दाता का भाव रखना समष्टि हित के लिए सव्वेसिं जीवियं पियं॥ जरूरी है। दूसरे या समष्टि के उत्थान की चाह सर्वोदय की अर्थात् सभी प्राणियों को आयु प्रिय है। सभी सुख सक्रियता की हार्दिक भावना का प्रतीक है। | चाहते हैं, दुःख से घबड़ाते हैं। वध नहीं चाहते हैं, जीने की आज हम जिस आतंकवाद को देख रहे हैं उसके | इच्छा करते हैं, सबको अपना जीवन प्यारा है। इसमें हमें मूल में कहीं न कहीं अधिकतम भूमि, अधिकतम राज्य | अपने अस्तित्व को बचाये रखना है तो दूसरे के अस्तित्व और अधिकतम संसाधनों पर अपना कब्जा करना है। भगवान् को स्वीकार करना चाहिए। यही सहिष्णुता है और यही महावीर की दृष्टि में यह सोच ही गलत है। वे कहते हैं कि सहअस्वित्व की भावना है। प्रकृति के पास इतना है कि वह तुम्हारी आवश्यकताओं की समाज के कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए संपदा का पूर्ति कर सकती है। लेकिन तुम्हारी इच्छाओं की नहीं। क्योंकि स्वेच्छा से विसर्जन करना अपरिग्रह है। समाज में संग्रह की इच्छायें असीम होती हैं जिनकी पूर्ति न इच्छा करने वाला | प्रवृत्ति उथल-पुथल मचाती है। यदि इसका उचित समाधान कर सकता है और न ही कोई शासक या राजा। अतः नहीं किया गया तो जनसंघर्ष या वर्ग की स्थिति बनती है। अतः ना तो अधिक धन का प्रदर्शन करना चाहिए और ना सर्वप्रथम अपनी इच्छाओं को संयमित करो और जो संसाधन तुम्हें प्राप्त हैं उनका बेहतर उपयोग करते हुये जीना सीखो। ही आवश्यकता से अधिक धन का संचय करना चाहिए। तभी हम शांति से जीवन यापन कर सकते हैं। सुख, शांति जो व्यक्ति सहअस्तिस्व में विश्वास रखता है, दूसरे के त्याग में है, संचय में नहीं। विचारों का आदर करता है वह कभी भी किसी की हिंसा भगवान् महावीर ने नारियों का सम्मान सुरक्षित करना नहीं कर सकता । जरूरी है कि हम व्यक्ति के मन में सद्विचार पारिवारिक एवं सामाजिक कर्त्तव्य माना क्योंकि नारी समाज और अहिंसक भावनाओं को प्रतिष्ठित करें। उसे संयम से की महत्त्वपूर्ण इकाई है। चंदना के उद्धार से उन्होंने यह जीना सिखायें। संदेश जन-जन में दिया कि स्त्री भी समाज में पुरुषों की भगवान् महावीर ने कर चोरी को राष्ट्रद्रोह मानते हुए तरह आदर एवं सम्मान की पात्र है। आज जो लोग गर्भ में ही इसे असत्य आचरण माना है। जो राष्ट्र के विकास के लिए कन्याओं की भ्रूण हत्या कर रहे हैं उन्हें इस पाप से बचना आर्थिक विषमता दूर करना चाहते है, उन्हें शोषण और चाहिए। यह राष्ट्र एवं समाज के प्रति द्रोह है जिसकी अनुमति शोषणकारियों से बचना चाहिए। आर्थिक विषमता के कारण न धर्म देता है और न समाज। संयमी जीवन सुख का सामाजिक शोषण भी होता है। यह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष चोरी से संवाहक होता है इसलिए भगवान् महावीर ने स्वस्त्री या उत्पन्न होता है। इससे बचने के लिए भगवान महावीर ने स्वपुरुष से ही रमण करने का गृहस्थों को संदेश दिया और कहा कि श्रम करो, श्रम का आदर करना सीखो। वे सच्चे साधुओं से कहा कि वह पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये अर्थों में श्रमण थे। उन्होंने अस्तेय/अचौर्य को परिभाषित आत्महित करें। इस नियम का पालन करने पर एड्स जैसी करते हुए कहा कि- 'अदत्तादानं स्तेयं' अर्थात् बिना दी हुई भयंकर बीमारी की उत्पत्ति को रोका जा सकता है। वस्तु का ग्रहण करना चोरी है। कल, बल, छल या दूसरे इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् महावीर के तरीकों से जिस पर अपना अधिकार नहीं है, उन वस्तुओं विचार आज भी प्रासंगिक हैं और यह सभी समस्याओं का का स्वयं ग्रहण करना, दूसरों को देना चोरी है। इससे बचना समुचित समाधान करने में समर्थ हैं। हम सब इन्हें अपनाकर चाहिए। जो व्यक्ति अस्तेय भावना को अपना लेता है वह अपना जीवन सुखमय बना सकते हैं। राष्ट्र की संपदा का सबसे बड़ा संरक्षक होता है। मंत्री- अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद भगवान महावीर ने बताया कि संसार के सभी प्राणियों । एल-६५, न्यू इंदिरानगर, बुरहानपुर (म.प्र.) फोन- २५७६६२ 18 मार्च 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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