Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ हमारे लिए विचारणीय सबसे पहले हमें सोचना होगा कि जब भी किसी देश, प्रदेश, सरकार, समाज या धर्म की एक सामान्य छवि बनती है, तो वह कोई आधारहीन भी नहीं होती और वह छवि एक दिन में भी नहीं बनती। हम यदि स्वयं की समीक्षा भी करें, तो बात बुरी नहीं होगी। हम धार्मिक परिभाषा और दृष्टिकोण को एक बार ऊँचे सिंहासन पर बैठाकर गौण करके विचार करें, तो हम पायेंगे कि हम सभी कहीं न कहीं पूँजीवादी मानसिकता से ग्रसित तो हैं ही। सच तो यह है कि हम जीवहिंसा को तो पाप मानते हैं, किन्तु परिग्रह को पुण्य का फल मानकर उसे उपादेय मानते हैं। हम परिग्रह को पाप मान ही नहीं रहे हैं। समाजवाद के अनुसार सच यही है कि जब एक स्थान पर पूँजी बढ़ती है, तो उसका अर्थ है कि समाज का एक बड़ा वर्ग शोषण का शिकार हो रहा है। जब युगों तक सतत यही क्रम चलता है, तो शोषित वर्ग मजबूरी में हिंसा और अन्य पापों का रास्ता अपनाता है। विचार करें ! हमने परिग्रह का भी तमाशा बनाया है और अपरिग्रह का भी । परिग्रह हम पर पूरी तरह हावी है। परिग्रह पाँच में एक पाप है। किन्तु शादी-विवाह हो या धार्मिक मंच परिग्रहवालों की होड़ है। लड़केवाले लड़कीवालों का परिग्रह देखकर रिश्ता करते हैं, लड़कीवाले भी अधिकाधिक परिग्रह से युक्त लड़का पसन्द करते हैं। विवाहसमारोहों में परिग्रहप्रदर्शन प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है। धार्मिक समारोह में सबसे बड़ा परिग्रही, दान में उदारता के कारण उँचे स्थान पर बैठता है । सभाओं, परिषदों का मुखिया भी परिग्रह देखकर ही बनाया जाता है। व्यापारी और परिग्रह का अविनाभाव संबंध है। बाजारीकरण के इस दौर में यह सब और भी अधिक प्रशंसनीय व उपयोगी हो गया है। अपरिग्रही साधु भी परिग्रही गृहस्थों से घिरा है। तीर्थ बनवाने से लेकर बड़े-बड़े पांडालोंवाले समारोह उन्हें इनके बिना बनते नहीं दिखते। कभी-कभी उन्हें भी उन्हीं की जुबान बोलनी पड़ती है । बहुत पुरानी कहावत है 'पैसा बोलता है'। पैसा तो जड़ है, वह कैसे बोल सकता है, लेकिन माया ही कुछ ऐसी है जिसके कारण पैसा चेतन और मानव जड़ दिखायी देने लग गया है। हम सभी एक कृत्रिम वातावरण में रह रहे हैं। मंच पर अपना लक्ष्य मोक्ष बतलाने की आदत सी हो गयी है, भले ही हमारे क्रियाकलापों का सम्बन्ध मोक्षमार्ग से बिल्कुल न हो । 20 मार्च 2007 जिनभाषित Jain Education International भोग भोगने का एक बहाना यह भी सच यह है कि हम भोग छोड़ना चाहते ही नहीं हैं। इसके विपरीत जब भोगों के प्रति उदासीनता के प्रवचन दिये जाते हैं, उन्हें सुनकर भी हम 'अनासक्ति' की बहुत बड़ी ढाल खड़ी करते हैं और यह सोचकर या कहकर पंचेन्द्रियों भोगों में पुनः संलग्न हो जाते हैं कि 'अनासक्त भोग' ही धर्म है । हमारा एक चिर परिचित तर्क है कि मूर्च्छा को परिग्रह कहा गया है और यदि मूर्च्छा न हो तो परिग्रह बुरा नहीं है । रास्ता निकालने में हम बहुत चतुर हैं । कहने का तात्पर्य- अधिक कमाने की लालसा, प्रचुर भोग सामग्रियों का संग्रह और इन सबके साथ आत्मानुभूति हमें पसंद है। इनके बिना आत्मानुभूति क्या होती है, हम जानते ही नहीं हैं। बाजार और परिग्रह का तर्क आज इतना अधिक बलवान् हो गया है कि उसका निषेध करने में भी पसीना छूटता है । पैसा कमाने में बुराई क्या है? पैसा हमेशा से एक बड़ी जरूरत रहा है। बात सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं है। बच्चों को ऊँची शिक्षा देना कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन उसके लिए भी बहुत पैसा चाहिए। एक अच्छे घर में रहना और अच्छे वस्त्र पहनना भी कोई अपराध तो नहीं, अच्छे स्तर का शुद्ध सात्त्विक भोजन भी कोई सस्ता थोड़े ही आता है। इन सबके लिए व्यक्ति की एक मासिक मोटी आय होनी चाहिए। इन सबके लिए यदि कोई पुरुषार्थ करता है और लक्ष्मी अर्ज करता है, तो इसमें बुराई क्या है? सही है, इसमें बुराई नहीं है, यह हर मानव का अधिकार । पर यह अधिकार भी तब तक ही सुरक्षित है जब तक इसमें अनैतिकता प्रवेश न करे। यदि इसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य को चोरी करना पड़ती है, रिश्वत लेनी पड़ती है, या आय-व्यय के लेखा जोखा में हेर-फेर करनी पड़ती है, तो ये आवश्यकतायें अपराध में आ जाती हैं। इसके लिए मनुष्य भी दोषी है और व्यवस्था भी । मनुष्य इसलिये दोषी है कि उसके पास आवश्यकताओं की कोई सीमा निर्धारित नहीं है, जिसे हम परिग्रहपरिणाम व्रत कहते हैं। व्यवस्था इसलिए दोषी है कि व्यवस्था की ही खराब और असफल नीतियों के कारण मनुष्य के सामने यह संकट खड़ा होता है कि वह अपनी सीमित आय में से परिवार एवं स्वयं की आवश्यकता की भी पूर्ति नहीं कर पा रहा है। कभी-कभी अनचाही अनैतिकता भी उसे अपनानी पड़ती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36