Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ प्रतिशत अंठानवे तो होगा, जो कि इस दृष्टि से अन्य समाज | होता है, वह बहुत खर्चीला तथा छप्पन भोगवत् नहीं होना की अपेक्षा कहीं अधिक है। चाहिए। उसमें भी संयम और सादगी का परिचय दिया जा अपना पक्ष प्रस्तुत करने के बाद हम आज की स्थिति सकता है। इसके लिए कुछ नियम भी बनें । प्रायोजकों द्वारा पर ईमानदारी से विचार भी करें, तो पायेंगे कि अपने ही | | वैभवप्रदर्शन इसके माध्यम से भी होता है। समाज में रात्रिभोजनत्याग, शुद्ध शाकाहार इत्यादि का पालन 5. किन्हीं समारोहों में नेता, मंत्री या उच्च पदाधिकारी करनेवाले लोगों का प्रतिशत नीचे गिर रहा है। बात बड़े का बुलाना जब तय हो, तो उन्हें अथवा उनके निजी सचिव शहरों में रहनेवाले जैनों की हो अथवा छोटे शहरों में रहने को अपने धर्म, समाज तथा संस्कृति की विशेषता तथा वालों की, समस्या सभी जगह है। हमें जन्म से मिली इस | प्राचीनता बतलानेवाला, सकारात्मक विचारों से युक्त तीन विरासत को हम, इतना हल्का और अर्थहीन समझने लगे हैं | चार पेज का मैटर टाइप करके दे दें। वे प्रायः अजैन होते हैं कि उसके मूल्य हमारे जीवन से कपूर की तरह उड़ रहे हैं। तथा मूलभूत सिद्धान्तों एवं तथ्यों से अनभिज्ञ होते हैं तथा इस सच यह है कि नयी पीढी में यह दर तेजी से बढ़ रही है। प्रकार के भाषणों की तैयारी के लिए उनके पास समय नहीं होटलों और रेस्टोरेन्टों पर अधिकांश रूप से आश्रित नवयुवक | होता, अत: वहीं मंच पर आकर जैसा दुनिया में भ्रम फैला व युवतियाँ अज्ञानता में, आधुनिकता में प्रेस्टीज में तथा कई | है, उससे प्रभावित होकर अपना वक्तव्य दे डालते हैं। इससे पैसे के मद में इतने चूर हैं कि उन्हें यह समझाना कठिन हो | कभी-कभी विरोधाभास का भी सामना करना पड़ता है और रहा है कि शाकाहारी रहना और नशा इत्यादि नहीं करना | मीडिया भी उसे उसी अर्थ में लेकर कवरेज करता है। अधिक सभ्य, आधुनिक तथा प्रासंगिक है। यह कोरी धार्मिक | 6. प्रत्यक्ष मांस तो कोई नहीं खाता, किन्तु परोक्षरूप रीति ही नहीं, बल्कि जीवन के बुनियादी उसूलों में, सदाचार | से हम उसके भागी बन जाते हैं। हमें इस बात पर भी दृढ़ता की श्रेणी में आता है। हम श्रावकाचार के पालन की असमर्थता | दिखानी होगी कि बाजारू बर्थडे केक, पेस्ट्री, इत्यादि बेकरी भले ही व्यक्त करें, लेकिन श्रावकाचार में ही समाहित | की वस्तुयें हमारे जीवन का हिस्सा न बनें। उस रेस्टोरेन्ट लोकामान्य सदाचार को छोड़ना तो आदिम बर्बरपन की ओर | और होटल या समारोह का शाकाहारी भोजन भी न करें, कदम बढ़ाना है। जहाँ मांसाहार की भी व्यवस्था हो। मांसाहार नहीं करने को कुछ समाधान भी हैं स्वभिमान तथा गर्व के साथ प्रस्तुत करें। मैं तो यहाँ तक मुझे अक्सर पाठकों के पत्र मिलते हैं और उन पत्रों में | कहता हूँ कि इस बदलते युग में यदि कोई ग्लोबल गृहस्थ वे अक्सर कहते हैं कि आप समस्या तो बता देते हैं, किन्तु | ईमानदारी से मात्र शाकाहार का व्रत भी पूर्णता के साथ समाधान भी बतलाया कीजिए। मैं समझता हूँ इस सांस्कृतिक | पालन कर ले, तो सबसे बड़ा धर्म कर रहा है। संक्रमण के दौर में भी कुछ तो समाधान हैं हीं, जिनका 7. हम प्रत्येक कार्य करके भी यदि अच्छी पुस्तकों आचरण करके हम अपनी छवि पूर्व की भाँति बेहतर बना | को पढ़ने की आदत डालें तथा समाजिक स्तर पर भी सकते हैं। आध्यात्मिक स्वाध्याय को प्रोत्साहित करें, तो वैचारिक 1. हम बड़े से बड़े कार्यक्रमों में भभड़ता का परिचय विकास हमें सुदृढ़ बनायेगा। न देकर सादगी को महत्त्व दें। प्रचार से ज्यादा विचार और 8. मैं चाहता हूँ कि आप सभी अपने विचार समाधान प्रदर्शन से ज्यादा दर्शन को स्थान दें। इन विषयों पर व्यक्त करें, मुझे भेजें, पत्र-पत्रिकाओं में वर्तमान में मनिराजों तक के प्रवचनों में तालियों | प्रकाशित करायें तथा इस विचार श्रृंखला को बढाते जायें। की गड़गड़ाहट गूंजने लगी है। प्रवचन में तालियाँ गरिमानुकूल | ध्यान रखें, विचार बदलेंगे तो आचार बदलेगा। नहीं हैं, अतः उन पर संयम जरूरी है। 9. महावीरजयन्ती जिस बृहद स्तर पर मनाते हैं, 3. धर्मायतनों में तथा ध्यानकेन्द्रों में ए सी. इत्यादि | उसी स्तर पर ऋषभदेव जयन्ती भी मनायें। जैनधर्म के का प्रयोग भोग को प्रदर्शित करता है. योग को नहीं। इसका | आदि-प्रवर्तक का परिचय जन जन में होना चाहिए। कडा निषेध हो। हिंसा के साथ-साथ यह खर्चीला भी होता इन बिन्दुओं पर विचार करके यदि हम कुछ शुभारम्भ करेंगे, तो महावीरजयन्ती सार्थक हो जायेगी। 4. धार्मिक उत्सवों में जो सामूहिक भोज का आयोजन जैन दर्शन विभाग, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली -16 22 मार्च 2007 जिनभाषित - र' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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