Book Title: Jinabhashita 2007 03
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 19
________________ नरबलि रूप घोर निंद्य पापाचरण को ही धर्माचरण मान बैठा । गौण की विवक्षा लेकर कथन करना चाहिए। आज जो राष्ट्र था। ऐसे समय आवश्यकता थी उनका स्वविवेक जगाने | एक दूसरे के विचारों का आदर करते हुये संवाद के लिए की, उनके पुरुषार्थ के उद्घाटन की; और यह कार्य किया | तैयार होते हैं, संवाद करते हैं वे अपनी समस्याओं को भी भगवान महावीर ने अपने सर्वोदय तीर्थ के माध्यम से। यह | सुलझा लेते हैं और अपने आप को आत्मनिर्भरता की ओर सर्वोदय तीर्थ आज भी जयवंत है, जरूरी है। भी ले जाने में समर्थ हो जाते हैं। वैचारिक संवाद का ही भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित सर्वोदय का तात्पर्य | परिणाम है कि आज विश्व शीत युद्ध के भय को पीछे छोड़ था- मनुष्य के अंतर में विद्यमान सद्गुणों का उदय। सद्गुणों चुका है। भगवान् महावीर का यह अनेकान्तात्मक विचार के द्वारा मनुष्य अपने विकारों पर विजय प्राप्त कर सकता | वैचारिक हिंसा से तो बचाता ही है, वह दैहिक हिंसा को भी है। विकारों पर पूर्ण विजय रूप लक्ष्य से परमलक्ष्य (मोक्ष) | वर्जित करता है। की प्राप्ति होती है। वास्तव में सर्वोदय का सिद्धांत ऐसी | पश्चिमी देशों में यह माना जाता है कि बहुसंख्यक आध्यात्मिक भित्तियों पर स्थित है जो व्यक्ति को अकर्मण्य | लोगों का सुख, उनका अभ्युदय बढ़ाना, प्रत्येक मनुष्य का से कर्मण्य और कर्तव्य परायण बनने की प्रेरणा देता है; साथ | कर्त्तव्य है। सुख का अर्थ वे मात्र शारीरिक या आर्थिक मानते ही पर से निज की ओर और निज से पर की ओर जाने का | हैं, आत्मिक नहीं। वे यदि बहुतों को सुख मिलता है, तो संकेत भी; अतः पहले स्वयं का आचरण निर्मल बनायें, | कुछ लोगों को पीड़ा पहुँचाने के लिए बुरा नहीं मानते; बाद में अपने जैसा चरित्रवान बनने की दूसरों को प्रेरणा दें। जबकि भगवान महावीर द्वारा निर्दिष्ट सर्वोदय न तो "सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय" अमृत रूपी | अल्पसंख्यावादी है, न ही बहुसंख्यावादी। उसका उद्देश्य जिनवाणी के उपदेष्टा भगवान् महावीरस्वामी के इस धर्म- | १०० में से ५१ या १०० में से ९९ का उदय नहीं, बल्कि तीर्थ को विक्रम की चतुर्थ शताब्दी में आचार्य समन्तभद्र | १०० में १०० का उदय है, इसलिए वर्तमान के स्वामी ने 'सर्वोदय-तीर्थ' की संज्ञा देते हुए कहा है कि- उपयोगितावादियों के अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख' सर्वान्तवद् तदगुण मुख्य कल्पं, का सिद्धांत उनके विचारों से मेल नहीं खाता। सर्वान्त शून्यं च मिथोनपेक्षम्। भगवान् महावीरस्वामी ने जीवन के विकास हेतु सर्वापदामन्तकरं निरन्तम्, अहिंसा, सत्य, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य; ये पाँच सूत्र सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव॥ बताये; जिनसे व्यक्ति का सर्वाङ्गीण विकास होता है। वास्तव अर्थात् हे भगवान् महावीर! आपका सर्वोदय तीर्थ | में सामाजिक उत्थान करने के लिए यह एक आदर्श व्यवस्था सापेक्ष होने से सभी धर्मों को लिए हुए है। इसमें मुख्य और | है। यह सिद्धांत सामाजिक जीवन का इस प्रकार संगठन व गौण की विवक्षा से कथन है अतः कोई विरोध नहीं आता; | संवर्द्धन करना चाहते हैं कि प्रत्येक सामाजिक व्यक्ति अपना किन्तु मिथ्यावादियों के कथन निरपेक्ष होने से संपूर्णत: वस्तु | पूर्ण विकास कर सके। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि स्वरूप का प्रतिपादन करने में असमर्थ है। आपका शासन / | वह दूसरे के विकास के लिए साधन उपलब्ध कराये। तत्त्वोपदेश सर्व आपदाओं का अन्त करने और समस्त संसार भगवान् महावीर के विचार एक वैचारिक क्रान्ति हैं के प्राणियों को संसार-सागर से पार करने में समर्थ है अतः | जिनका हिंसा में नहीं अहिंसा में अटूट विश्वास है। इन वह सर्वोदय तीर्थ है। विचारों का पालक सत्याचरण में आस्था रखता है। अचौर्य भगवान् महावीर ने कहा कि एक दूसरे के विचारों उसकी साधना है और अपरिग्रह उसका लक्ष्य है। वह का आदर करो, भले ही वे तुम्हें इष्ट हों या न हों। उन्होंने | आवश्यकता से अधिक धन का संचय नहीं बल्कि त्याग अहिंसा मूलक आचारव्यवस्था और अनेकांत मूलक विचार करता है और वह भी स्वेच्छा से। वह जोड़ने से अधिक व्यवस्था का प्रतिपादन किया। जब दृष्टि आचारोन्मुख होती | छोड़ने में विश्वास करता है। तभी उसे ब्रह्मचर्य रूप साध्य है तो वह अहिंसा से युक्त हो जाती है और जब यह | की प्राप्ति होती है। आज जीवन में सत्य की साधना कठिन विचारोन्मुखी होती है तो अनेकान्त से युक्त हो जाती है।। हो गयी है जबकि इसके बिना सामाजिक समरसता, शुचिता अनेकान्त बताता है कि वस्तु के अनेक पक्ष होते हैं। जिनका | और सर्वोदय की भावना नहीं बन सकती है। सच्चाई के एक साथ व्यवहार या कथन संभव नहीं है अतः मुख्य और | रास्ते पर चलने वाला व्यक्ति ही सामाजिक होता है जिसका -मार्च 2007 जिनभाषित 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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