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दूर करने के लिए या दुनिया में आग बुझाने के लिए, दुनिया | और अज्ञानी होगे तो क्या करोगे ? ज्ञानी होगे तो अपने घर
के सारे दोष दूर करने के लिए। दुनिया में आग लगाने के लिए ? अब दोनों तरफ यह स्थिति बन रही है, आग लगा लो या आग बुझा लो ? अब तुम ज्ञानी होगे तो क्या करोगे
की आग बुझाओगे और अज्ञानी होगे तो पर की आग बुझाओगे । ज्ञानी और अज्ञानी में यही अंतर है।
'वसुधा पर सुधा' से साभार
क्या तत्त्वार्थसूत्र में अनुदिश का उल्लेख है ?
जैन परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे जैन बाईबल भी कुछ लोग कहते हैं । पूज्य | आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज इसे " The Key of |Jainism" कहते हैं। वास्तव में यह जैन धर्म की कुंजी है और इस ग्रंथ को समझने के बाद अन्य ग्रंथों को समझना आसान हो जाता है। दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में तत्त्वार्थसूत्र के पाठों में भेद है, यह सर्वविदित है । यदि थोड़ा सा और विचार करें तो हमें ऐसा समझ में आयेगा कि दिगम्बरपरम्परा में भी पाठभेद देखे जाते हैं। पाठभेद का एक नमूना 'भाण्ड' शब्द का है जो कि वर्तमान में प्रचलित तत्त्वार्थसूत्र में नहीं है, लेकिन 'भूवलय' में 'भाण्ड' शब्द उपलब्ध होता है। नव अनुदिशों का भी ऐसा ही प्रसंग हमें देखने को मिलता है ।
यह तो सर्वविदित है कि श्वेताम्बरपरम्परा में अनुदिशों की मान्यता नहीं है, जब कि दिगम्बरपरम्परा में इनकी मान्यता है । तत्त्वार्थसूत्र के वर्तमान संस्करणों में कहीं भी नव अनुदिशों का वर्णन देखने को नहीं मिला है और हम 'नवसु इस पाठ से ही नव अनुदिशों को ग्रहण कर लेते हैं, जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र के महान् | टीकाकार आचार्य श्री पूज्यपाद ने लिखा है। चौथी शताब्दी के इन महान् आचार्य ने चौथे अध्याय के १९ सूत्र की टीका करते हुए लिखा है- 'नवसु ग्रैवेयकेषु' इति नव शब्दस्य पृथग्वचनं किमर्थम् ? अन्यान्यपि नवविमानानि अनुदिशसंज्ञकानि सन्तीति ज्ञापनार्थम् । आचार्य श्री पूज्यपाद ने 'नवसु' शब्द से ही नव अनुदिशों का ग्रहण किया है, लेकिन मूल में कहीं भी इनका उल्लेख नहीं है ।
मुझे अनुदिशों का स्पष्ट उल्लेख करनेवाला पाठ मिला है। यह पाठ मुझे तत्त्वार्थसूत्र की बालचन्द्रदेव की
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मुनि श्री नमिसागर जी
( आचार्य श्री विद्यासागर जी संघस्थ )
।
में
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कन्नड़ टीका में मिला । यह टीका तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ के साथ मैसूर विश्वविद्यालय से सन् १९५५ में प्रकाशित हुई थी। इस ग्रंथ का सम्पादन सुप्रसिद्ध विद्वान ए. शान्तिराज शास्त्री जी ने किया है। चौथे अध्याय के १९ वें सूत्र लिखा है- 'सौधर्मेशान --- प्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेष्वनुदिशेषु - ॥' इस सूत्र में स्पष्टरूप से नव अनुदिशों का उल्लेख है और इसकी टीका करते हुए लिखा है 'अनुदिशेषु नवानुदिशेगकोकं ।' सूत्र ३२ में भी अनुदिश का स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है, जिसकी टीका करते हुए बालचन्द्रदेव ने लिखा है 'नवानुदिशविमानंगकोक् मूवत्तेरहु' मतलब नवानुदिशविमानों में ३२ सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति है ।
उपरिम उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में अनुदिशों का उल्लेख है, लेकिन यह समझ में नहीं आता कि यह पाठ छूट क्यों गया है और वर्तमान के सूत्रों में यह पाठ क्यों नहीं मिलता है? सन् १९५० के लगभग बालचन्द्र मुनि हुए हैं और उनके समय में यह पाठ उपलब्ध था । गरज यह है कि प्राचीन हस्तप्रतियों को टटोला जाए, जिससे और भी अनेक बातें स्पष्ट हो सकती हैं। बारहवीं सदी या उसके और पहले की प्रतियों को खोजा जाए और उनका अध्ययन किया जाए तो बहुत अच्छा होगा । यदि विद्वान् लोग इस पर ध्यान दें और इस काम में जुट जाएँ, तो बहुत सी नई बातों का पता लगाया जा सकता है, जिनका कि हमें ज्ञान नहीं है। मैं आशा करता हूँ कि विद्वान् लोग इस कार्य में अवश्य ही लगेंगे और श्रीमान् वर्ग इस कार्य के लिए विद्वानों का उत्साह बढायेंगे। केवल तत्त्वार्थसूत्र ही नहीं, और भी ग्रंथों की प्रतियों को टटोलने की जरूरत है।
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मार्च 2007 जिनभाषित 15
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